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घउसट्रिमो संधि
१२५ दे रहा था। उसकी चपेट अत्यन्त घातक और मारक थी । जहाँ होता वहाँ सूर्यास्त हो जाता, निशानभकी भांति वह सूर्यास्त कर देता था। योद्धाओंके व आहत थे और हाथ कटे हुए । वे ऐसे लग रहे थे, मानो आहनवृक्षोंका कोई उपवन हो। सलवार, हाथ और पराक्रम से शुन्य समूची सेना ऐसी जान पढ़ती थी, मानो क्षीरसमुद्रका पानी मथ दिया गया हो। जो सेना हनुमानसे आकर लड़ी, उसने उसे खेल-खेल में समाप्त कर दिया। फिर उसके सम्मुख मालि निशंक होकर खड़ा हो गया ।।२-११॥
__ [1] सामने डटकर उसने हनुमानको ललकारा, "क्या कायरोंके साथ युद्ध करना उचित है । मुडो मुड़ो हनुमान् , मुझे युद्ध दो | मुझे छोड़कर, और कौन तुम्हारा प्रतिद्वन्द्वी हो सकता है। तुम रामके अनुचर हो, और मैं गषणका । जैसे तुम इस धरतीके प्रकाश हो, उसी प्रकार मैं भी। एक तुम हो और पक मैं, जिन्होंने अपना कुल्ट कलंकित नहीं होने दिया । रहा प्रश्न विजयलक्ष्मीका। वह जिसे पसन्द करे उसकी हो जाय ।" गह सुनकर नन्दनवनको उजाड़नेयाले हनुमानने मालिको फटकारते हुए कहा, "हनुमान-जैसे अजेयकृतान्त के कुद्ध होने पर, तुम्हें पकड़ने में क्या रखा है। क्या बनायुधका बेटा नहीं मारा गया, क्या उद्यान नहीं उजड़ा, और क्या अनुचरोंका विनाश नहीं हुआ। मैं वही हनुमाम् फिरसे आया हूँ, जो कुमार अक्षयके लिए कृतान्त है और नगरके लिए केतु । जरा अपना रथ सामने बढ़ाइए, और अस्त्र लेकर प्रहार कीजिए, मैं तुम्हें पहले आघातमें समाप्त कर दूंगा, इसलिए खुद प्रहार नहीं करना चाहता" ॥१-या