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बासदिमो संधि
दोनों हाथ ऊपर कर दहाड़ मार कर रो रही थी। ऐसा योद्धा एक भी नहीं था जिसके शरीर पर बाब न हो, एक भी ऐसा राजा नहीं था जिसका मन उदास न दो, एक भी ऐसा रथ नहीं था जो टूटा-फूटा न हो, जो क्षतिग्रस्त न हुआ हो और तीरोंसे न भरा हो ।" एक भी हाथी ऐसा नहीं था, जिसपर तलवारका आघात न हो। ऐसा एक भी अश्व नहीं था जिसके नख न टूटे हों । इस प्रकार बहुत रात तक, चे करुण विलाप करते रहे, और बादमें वे गहरी नींदमें डूब गये | जय आधी रात हुई तो विद्याधरोंका राजा, गुप्तभेष में नगरमें घूमने के लिए निकला, मानो योगेश्वर ही हो।" ॥१-२॥
[४] उसके दोनों नेत्र खिले हुए थे । तरूवारसे रावण भयंकर दिखाई दे रहा था । रात्रि में वह घरों घर घूम रहा था यह जानने के लिए कि कौन मेरे विषयमें क्या विचार रखता है । कहीं पर वह सुन्दर कामिनियोंके अत्यन्त सुन्दर कीड़ागृहों में घुस जाता । वहाँ चटोंकी तरह सुरत क्रीड़ा प्रारम्भ हो रहो थी । नटलीलाकी ही भाँति इनमें उत्तरोत्तर आनन्द बढ़ रहा था। नटलीलाकी तरह इसमें मुख और भौहे टेन्ही हो रही थीं । नटलीलाकी भाँति इसमें पैर और आँख चल रही थीं। नटलीलाकी भाँत्ति, इसमें भी नख बढ़े हुए थे। नटलीला की भाँति इसमें भी प्रहर का उदय हो गया था। एकका स्वर गम्भीर हो रहा था. दुमरेका तीर, एक हाथ बँध हुए थे और दूसरे में बातचन्द्र थे। नटलीलाकी भाँति वह सुरत लीलाके भी स्वर और बोल गम्भीर थे। नटलीलाके ही अनुरूप सुरत क्रीडाके प्रारम्भको देख कर रावणको अचानक सीतादेवी की याद हो आयी और वह अपने आपको कोसने लगा ॥१-५॥