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सिसटिमो संधि
१०७ को धोनेवाले थे । वे अपने जनोंकी कामना पूरी करनेवाले थे । दोनोंने कोण्ट अन बाहर निकाल लिये । दोनोंने युद्ध में विद्याघरोंके अस्रोंका उपयोग किया। दोनों रक्तरंजित भयंकर युद्ध करते रहे। आखिर नंदनने अपना चंचल रथ, चपलतासे जरकी ओर हाँका। बड़ी कठिनाईसे, आकाशमें देवताओंके देखते-देखते नन्दनने भालोसे वक्षःस्थल पर चोटकर जरको मार डाला !?-१०||
. [८] जब जर, इस प्रकार युद्ध में काम आ चुका तो अक्रोश और सारण अपने भयंकर अरख लेकर' घोर युद्ध कर ली। राम और रावणके दोनों अनुचर युद्ध करने लगे। मानो दो मतवाले हावी ही आ लड़े हो । मानो सिंह ही आपसमें युद्धकोड़ा कर रहे हों । मानो राजा भरत और बाहुबलि हो । मानो सुधीर और त्रिविष्ट हों । मानो कपट सुग्रीव और महान राम हो। मानो विशुद्ध मन इन्द्र और प्रतीन्द्र हों। परन्तु वे दोनों योद्धा भी धराशायी हो गये। इतने में अक्रोशने रोष में आकर अपना तीर इस प्रकार छोड़ा मानो जिन भगवानने संसारका भयंकर डर छोड़ दिया हो।" वह तीर जाकर सारणके मुकुट के अपभागमें लगा, मानो महागजके सिरमें अंकुश जा लगा हो। तष, रत्नाश्रय और नन्दन के अनुचर, शत्रु पक्षके संहारक, दुबीर शत्रुओंका प्रतिरोध करनेवाले सारणने भी अपना धनुप चढ़ा लिया। उसने अक्रोशके बहुत बड़-बड़ करनेवाले सिर कमलको खुरपीसे कमलकी भाँति काट डाला ।।१-१०॥
[९] इस प्रकार जयश्रीका निवास अक्रोश युद्धमें भारा गया। उसके बाद दुरितने नराधिराज सुतकी ओर अपना रथ