________________
सिद्धिमो संधि
१०३
सिंहाने मारीचका धनुष छिन्न-भिन्न कर दिया। मारीचने भी, अपने चिरप्रेषित तोरोंसे सिंहार्धका धनुष दो टूक कर दिया, उसी प्रकार, जिस प्रकार परम जिनेश्वर संसारको नष्ट कर देते हैं । युद्धमें उन दोनों वीरोंने अपने-अपने धनुष, उसी प्रकार छोड़ दिये, जिस प्रकार सज्जन पुरुष अपनी निर्गुन पत्नियोंको छोड देते हैं ॥ १-१०||
[4] अपने उत्तम धनुषों को छोड़कर उसने गदा और वत्र ले लिये। दुनियाको विनाश करनेवाली कृतान्तकी दाइके समान था। वह सर्पसे उद्धत भटकी तरह दुष्ट बुद्धि था । असती स्त्री की तरह, पर पुरुष ( शत्रु दूसरा आदमी ) से लम्पट स्वभाव था, कुमतिकी तरह, भयसे डरावना था, दुष्ट स्त्रीको तरह कलह स्वभाव था । यह काल और शनिकी तरह दिखाई दिया, मानो वह खोदे वर्ष की गलीके समान था । मानो वह प्रलयके सूर्य की दीप्ति के समान था, मानो प्रलय समुद्रको तरंगकी भाँति था। भौहों से अत्यन्त भयंकर राम और रावणके उन अनुचरोंके हाथोंसे रोज्ज्वल वह गदा - बज्र ऐसा सोह रहा था मानो मेघों के बीच बिजली हो। वे दोनों टकराकर और अलग हो जाते, मानो महोंसे यह टकराकर अलग हो जाते हों। दोनोंकी गाओंके आघावसे अग्नि ज्वाळा फूट पद्धती, जो एक क्षणके लिए आकाशमें देवविमानकी शंका कर देती। अन्तमें भारीचने सिंहार्धका रथ, सारथि और ध्वजके साथ गिरा दिये । वह ऐसा चकनाचूर हो गया कि केवल हड्डियोंकी गठरी ही नहीं बनी ॥१- १०।।
[६] रावण के अनुचरने जब रामके अनुचरको इस प्रकार मार गिराया, तो नरश्रेष्ठ पथिकने सिंह नितम्बकी पुकार मचायी।