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पाणसट्टिमो संधि प्रियसे आलिंगन माँग रही थी। कोई कान्ता मना करनेपर भी नहीं मान रही थी और निराकुल होकर, सुरतिकी तैयारी कर रही थी। कोई कान्ता अपने सिरमें फूल खोंस रही थी।
और अमूल्य वस्त्र पहन रही थी। कोई कान्ता गइने ढो रही थी । कोई कान्दा दूसरेका मुख देख रही थी। किसी कान्ताके अंगों में क्रोध नहीं समा रहा था, प्रियकी रणवधूके प्रति ईर्ष्यासे भरकर बोली, “यदि तुम्हें युद्धलक्ष्मीसे इतना अनुराग है तो मुझे मरणप्रत देकर ही जा सकते हो" ॥ १-१०॥
[४] कोई वीर योद्धा अपनी पत्नीसे बोला, “यदि कहती हो कि मैं यों ही नष्ट हो जाऊँ, तो उससे अच्छा तो यही है कि मैं स्वामी के काजके लिए अपने प्राणोंका उत्सर्ग करूँ। कोई एक और योद्धा बोला, "गण्डस्थलों और ध्वजामोंमें लगे हुए मोती लाऊँगा।" कोई बोला, "मैं तब तक प्रसाधन प्रहण नहीं करूंगा कि जयतक रावणकी सेनाको नष्ट नहीं करता।" कोई कहने लगा, "जब तक मैं सुभटोंकी चपेट में सफल नहीं उतरता मैं अंगराग पसन्द नहीं करूंगा।" कोई बोला, “मैं तबतक दर्पणमें मुख नहीं देखूगा कि जबतक अपनी वीरताका प्रदर्शन नहीं कर लेता। किसी एकने कहा, "मैं तबतक अपनी
आँखोंमें अञ्जन नहीं लगाऊँगा कि जबतक सुरवधुओंके नेत्रोंका रंजन नहीं करता!” एक और योद्धाने कहा, "जबतक मैं योद्धाओंक धड़ोंको नहीं नचाता, मैं अपने मुख में पान नहीं रतूंगा।" एक बाला, "मैं सुरतिक्रीड़ाका सम्मान तबतक नहीं कर सकता कि जबतक योद्धाओंके कुलोको मौतके घाट नहीं उतार देता।" कोई योद्धा कह रहा था, "धन्ये ! मैं तबतक फूल नहीं बाँधूंगा कि जबतक उत्तम दीरोंकी कतार नहीं बाँध देता!" एक योद्धाने कहा, "मैं तुम्हारा आलिंगन तबतक नहीं