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पकुणसहिमो संधि [२] जय और यशके लोभी कितने ही निर्दय सैनिक, गुस्सेसे भरकर तैयार होने लगे। कितनोंने अपने अच्छे मित्रों, पुत्र और पत्नियोंका मोह छोड़ दिया।
पहाइकी भाँति ऊँचे और धीर कितने ही योद्धा निकल पड़े। वे समुद्रकी दर अप्रमेय थे और दापीकी भांति दान देनेवाले 1 उनके केश, सिंहकी अयालकी भाँति उठे हुए थे। ये सब जीवनकी आशा छोड़ चुके थे। स्वामीकी भक्तिसे परिपूर्ण वे ईर्ष्याकी आगमें जल रहे थे । अनेक युद्धोमें अजेय कितनोंके शरीर केशरसे प्रसाधित थे। अपने प्राणको साधनेवाले कितने ही योद्धाओंके हाथमें शक्ति, त्रिशूल और चक्र था। किसीने वरुणास्त्र ले रखा था। किसीके हाथमें तीर तरकश
और धनुष था। कितने ही ऋद्ध एवं युद्धके लोभी योधा सन्नद्ध होकर निकल पड़े। कोई 'मारो मारो' कहता हुआ दौड़ पड़ा। कोई योद्धा आनन्दके मारे अपना कवच ही छोड़े दे रहा था। वीररससे भरपूर, एक दूसरा योद्धा इतना रोमांचित हो उठा कि उसके शरीरपर कवच नहीं समा पा रहा था ||१-१०॥
[३] किसीकी पत्नी कह रही थी, "देखो हाथीके सिरमें जितने मोती हों, वे सब मुझे लाकर देना।" कोई पत्नी अपने पतिको वस्त्रसे ढक रही थी, कोई पत्नी अपने पतिका श्रृंगार कर रही थीं । कोई कान्ता मुखराग लगा रही थी, कोई दर्पणमें मुत्र दिखा रही थी। कोई कान्ता अपने प्रियके नेत्रोंको आँज रही थी। कोई कान्ता अपने प्रियके भालपर. युद्धका तिलक निकाल रही थी। कोई कान्ता विकारग्रस्त होकर कुछ काह रही थी। कोई कान्ता पान समर्पित कर रही थी। कोई कान्ता अपने प्रियके ओठोंको चम रही थी, और कोई अपने