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परमात्मप्रकाश
क्योंकि उस समय वह कर्मबन्धनसे शून्य (रहित) हो जाता है । यद्यपि सब आत्माओंका अस्तित्व जुदा जुदा है, किन्तु गुणोंकी अपेक्षा उनमें कोई अन्तर नहीं है; सब आत्माएँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यके भण्डार हैं । अशुद्ध दशामें उनके ये गुण कर्मोंसे ढंके रहते हैं ।
परमात्माका स्वभाव-तीनों लोकोंके ऊपर मोक्ष स्थानमें परमात्मा निवास करता है । वह शाश्वत ज्ञान और सुखका आगार है, पुण्य और पापसे निर्लिप्त है। केवल निर्मल ध्यानसे ही उसकी प्राप्ति हो सकती है । जिस प्रकार मलिन दर्पणमें रूप दिखाई नहीं देता, उसी तरह मलिन चित्तमें परमात्माका भान नहीं होता । परमात्मा विश्वके मस्तकपर विराजमान है, और विश्व उसके ज्ञानमें, क्योंकि वह सबको जानता है । परमात्मा अनेक हैं,
और उनमें कोई अन्तर नहीं है । वह न तो इन्द्रियगम्य है, और न केवल शास्त्राभ्याससे ही हम उसे जान सकते हैं; वह केवल एक निर्मल ध्यानका विषय है । ब्रह्म, परब्रह्म, शिव, शान्त आदि उसीके नामान्तर हैं ।..... ___ कर्मोका स्वभाव-राग, द्वेष आदि मानसिक भावोंके निमित्तसे जो परमाणु आत्मासे सम्बद्ध हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं । जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है । कर्मोंके कारण ही आत्माकी अनेक दशायें होती हैं; कर्मोंके कारण ही आत्माको शरीरमें रहना पडता है । ये कर्म-कलङ्क ध्यानरूपी अग्निमें जलकर भस्म हो जाते हैं। ___आत्मा और परमात्मा-आत्मा ही परमात्मा है, किन्तु कर्मबन्धके कारण वह परमात्मा नहीं बन सकता । ज्यों ही वह अपनेको जान लेता है, परमात्मा बन जाता है । स्वाभाविक गुणोंकी अपेक्षासे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है । जब आत्मा कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, उसके आनन्दका पारावार नहीं रहता ।
उपनिषदोंमें आत्मा और ब्रह्म-उपनिषदोंमें ब्रह्म एक विश्वव्यापी तत्त्व माना गया है। समस्त जीवात्माएँ उसीके अंश हैं। बहुतसे स्थलोंपर आत्मा और ब्रह्म शब्दका एक ही अर्थमें प्रयोग किया है । जैसे लोहेका एक टुकडा पृथ्वीके गर्भमें दब जानेके बाद पृथ्वीमें ही मिल जाता है, उसी तरह प्रत्येक जीवात्मा ब्रह्ममें समा जाता है । अविद्याके प्रभावसे प्रत्येक आत्मा अपनेको स्वतन्त्र समझता हैं, किन्तु वास्तवमें हम सब ब्रह्मके ही अंश है । प्रारम्भमें यह ब्रह्म एक शक्तिशाली ऋचाके रूपमें माना जाता था, किन्तु बादमें यह उस महान शक्तिका प्रतिनिधि बन गया, जो विश्वको उत्पन्न करती और नष्ट करती है । यद्यपि बार बार ब्रह्मको निर्गुण कहा है किन्तु इसमें संदेह नहीं कि उसे एक स्वतंत्र अनन्त और सनातन तत्त्वके रूपमें माना है, जिससे प्रत्येक वस्तु अपना अस्तित्व प्राप्त करती है । इस तरह उपनिषदोंमें ब्रह्म ही आत्मा है। ___ योगीन्दुके परमात्माकी उपनिषदोंके ब्रह्मसे तुलना-'ब्रह्म' शब्द वैदिक है, और उपनिषदोंमें ब्रह्मको एक
और अद्वितीय लिखा है । जोइन्दुने इस शब्दको वैदिक साहित्यसे लिया है, और अपने ग्रन्थमें उसका बार बार प्रयोग किया है “अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्' लिखकर स्वामी समन्तभद्रने भी 'ब्रह्म' शब्दका व्यापक अर्थमें प्रयोग किया है। उपनिषदोंमें परमात्माकी अपेक्षा ब्रह्म शब्द अधिक आया है. यद्यपि 'नृसिंहोत्तरतापनी' आदि ग्रन्थोंमें दोनोंको एकार्थवाची बतलाया है । उपनिषदोंका ब्रह्म एक है, किन्तु जोइन्दु बहुतसे ब्रह्म मानते हैं । जैनधर्मके अनुसार परमात्मा कृतकृत्य हो जाता है, और उसे कुछ करना शेष नहीं रहता; वह विश्वको केवल जानता और देखता है, क्योंकि जानना और देखना उसका स्वभाव हैं । किन्तु, उपनिषदोंका ब्रह्म प्रत्येक वस्तुका उत्पादक और आश्रय है । यद्यपि उपनिषदोंके ब्रह्म और जैनोंके परमात्मामें बहुतसी समानताएँ हैं, किन्तु उनके अर्थमें भेद हैं । उदाहरणके लिये, उपनिषदोंमें 'स्वयंभू' शब्दका अर्थ 'स्वयं पैदा होनेवाला' और 'स्वयं रहनेवाला' है, किन्तु जैनधर्मके अनुसार 'स्वयं परमात्मा होनेवाला' है ।
योगीन्दुकी एकता-योगीन्दुके परमात्मा और उपनिषदोंके ब्रह्ममें उपर्युक्त अन्तर होते हुए भी, योगीन्दु बिल्कुल उपनिषदोंके स्वरमें परमात्माओंके एकत्वकी चर्चा करते हैं, और परमात्मपदके अभिलाषियोंसे
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