Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
View full book text
________________
३६८
कारणु एह.
योगीन्दु-विरचितः
[ दो० ३९___पाठान्तर-१) अप-दोहरा ॥, झ-दोहा सोरठा. २) अप-जाणे ते, झ-जाणइ ते. ३) ब___अर्थ-जो जीवाजीवके भेदको जानता है, वही ( सब कुछ ) जानता है; तथा हे योगिन् ! इसीको योगीजनोंने मोक्षका कारण कहा है ॥ ३८॥
केवल-णाण-सहाडे सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ । जइ चाहहि सिव-लाहु भणइ जोइ जोइहि भणिउँ ॥ ३९ ॥
[ केवलज्ञानस्वभावः स आत्मा (इति) जानीहि जीव त्वम् ।
__ यदि इच्छसि शिवलाभं भण्यते योगिन् योगिभिः भणितम् ।।] पाठान्तर-१) ब-केवलणाणु सहाउ.
अर्थ हे जीव ! यदि तू मोक्ष पानेकी इच्छा करता है, तो तू केवलज्ञान-स्वभाव आत्माको पहिचान, ऐसा योगियोंने कहा हैं ॥ ३९॥
को (?) सुसमाहि करउ को अंचउ छोपु-अछोपु करिवि को बंचउ । हल सहि कलहुँ केण समाणउँ जहिँ कहिँ जोवर्ड तहि अप्पाणउ॥४०॥
[कः (अपि) सुसमाधि करोतु कः अर्चयतु स्पर्शास्पर्श कृत्वा कः वञ्चयतु।
__ मैत्री सह कलहं केन समानयतु यत्र कुत्र पश्यतु तत्र आत्मा ॥] पाठान्तर-१) झ-चौपइ ।. २) अपबझ-का सुसमाहि. ३) अपझ-कलहि. ४) ब-सझाणउ. ५) पवझ-जहिं जहिं. ६) अप-जोवहु.
अर्थ-कौन तो समाधि करे, कौन अर्चन-पूजन करे, कौन स्पर्शास्पर्श करके वंचना करे, कौन किसके साथ मैत्री करे, और कौन किसके साथ कलह करे-जहाँ कहीं देखो वहाँ आत्मा ही आत्मा दृष्टिगोचर होती है ॥ ४०॥
तामै कुतित्थई परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ । गुरुह पसाएँ जाम णवि अप्पा-देउ मुणेई ॥४१॥ [तावत् कुतीर्थानि परिभ्रमति धूर्तत्वं तावत् करोति ।
गुरोः प्रसादेन यावत् नैव आत्मदेवं जानाति ॥] पाठान्तर-१) झ-दोहा।. २) अपझ-तामु ( अन्यत्र ताम ). ३) व-पसायहि. ४) अपझदेहहं ( देहहिं ! ) देउ मुणेइ.
अर्थ-जबतक जीव गुरु-प्रसादसे आत्मदेवको नहीं जानता, तभीतक वह कुतीर्थोंमें भ्रमण करता है, और तभीतक वह धूर्तता करता है ॥ ४१ ॥
तित्यहिं देवलि देउ वि इम सुइकेवलि-बुत्तु । देहा-देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ॥ ४२ ॥ [ तीर्थेषु देवालये देवः नैव एवं श्रुतकेवल्युक्तम् ।। देहदेवालये देवः जिनः एतत् जानीहि निश्चितम् ॥]
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
Page Navigation
1 ... 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550