Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 533
________________ योगीन्दु-विरचितः [ पुद्गलः अन्यः एव अन्यः जीवः अन्यः अपि सर्वः व्यवहारः । त्यज अपि पुद्गलं गृहाण जीवं लघु प्राप्नोषि भवपारम् ॥ ] पाठान्तर १) अ - अणु जियउ, प-अणु जीउ २) अपझ - पाहु. अर्थ — पुल भिन्न है और जीव भिन्न है, तथा अन्य सब व्यवहार भिन्न है । अतएव पुगलको छोड़ और जीवको ग्रहण कर इससे तू शीघ्र ही संसारसे पार होगा ।। ५५ ॥ जे वि मण्णेहि जीव फुड जे गवि जीउ मुणंति । ते जिण णाहाँ उत्तिया उ संसार मुचति ॥ ५६ ॥ [ ये नैव मन्यन्ते जीवं स्फुटं ये नैव जीवं जानन्ति । जिननाथस्य उक्तया न तु (नैव ?) संसारात् मुच्यन्ते ॥ ] पाठान्तर - १) अबझ - मणाहे. २) ब-णउ णिव्वाणु लहंति. ३) अ - मुच्चंति. अर्थ -- जो जीवको स्पष्टरूपसे न समझते हैं, और जो उसे न पहिचानते हैं, वे संसारमें कभी छुटकारा नहीं पाते - ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥ ५६ ॥ रयण दीउ दियर दहिउ दुध्दु घीवं पाहाणु । सुरूउँ फलिहउ अगिणि णव दिडंता जाणुं ॥ ५७ ॥ [ रत्नं दीपः दिनकरः दधि दुग्धं घृतं पाषाणः । सुवर्णं रूप्यं स्फटिकं अग्निः नव दृष्टान्तान् जानीहि ॥ ] पाठान्तर - १) अपझ - दियउ. २) अपब-धाउ. ३) प-सेना, झ-सुण्ण. ४) अ-रूष, पक्ष - रूप. ५) ब -जाणि अर्थ — रत्ने, दीपे, सूर्य, दही दूधै घी, पाषाण, सोना, चांदी, स्फटिकमणि, और अग्निये (जीवके ) नौ दृष्टान्त जानने चाहिये ॥ ५७ ॥ ३७२ देहादि जो परु मुणइ जेहउ सुण्णु अयासु । सो लहु पावई (?) बंभु परु केवलु करइ पयासु ॥ ५८ ॥ [ देहादिकं यः परं जानाति यथा शून्यं आकाशम् । स लघु प्राप्नोति ब्रह्म परं केवलं करोति प्रकाशम् ॥ ] पाठान्तर--१) अपझ - देहादिक. २) अपबझ - पावहि. अर्थ — जो शून्य आकाशकी तरह देह आदिको पर समझता है, वह शीघ्र ही परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है, और वह केवल प्रकाश करता है ॥ ५८ ॥ Jain Education International जेह सुंद्ध अयासु जिय तेहउं अप्पा बुत्तु । आयासु वि जडु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥ ५९ ॥ [ यादृक शुद्धं आकाशं जीव तादृशः आत्मा उक्तः । आकाशं अपि जडं जानीहि जीव आत्मानं चैतन्यवन्तम् ॥ ] पाठावर - १ ) अप-तेहो, [ दो० ५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550