Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 536
________________ दो० -७२ योगसारः [इन्द्रफणीन्द्रनरेन्द्राः अपि जीवानां शरणं न भवन्ति । __ अशरणं ज्ञात्वा मुनिधवलाः आत्मना आत्मानं जानन्ति ॥] पाठान्तर-१) अझ- गरिंद ण वि. प-णरिंद वि २) अप-जाणवि. अर्थ-इन्द्र, फणीन्द्र और नरेन्द्र भी जीवोंको शरणभूत नहीं हो सकते; इस तरह अपनेको शरणरहित जानकर उत्तम मुनि निज आत्मासे निज आत्माको जानते हैं ।। ६८ ॥ इक उपजई मरइ कुवि दुह सुह भुंजइ इक्छ । णरयहँ जाइ वि इक्क जिउ तह णिवाणहँ इक्क ॥१९॥ [एकः उत्पद्यते म्रियते एकः अपि दुःखं सुखं भुनक्ति एकः। नरकेभ्यः याति अपि एकः जीवः तथा निर्वाणाय एकः ॥] पाठान्तर-१) य-उप्पजउ. २) अ-इक्क मरइ इक्क वि, प-मरइ इक वि, व-मरइक्क वि. ३) ब-तहिं. अर्थ-जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरता है और वह अकेला ही सुखदुःखका उपभोग करता है । वह नरकमें भी अकेला ही जाता है और निर्वाणको भी वह अकेला ही प्राप्त करता है ।। ६९ ।। एक्कुलउँ जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि । अप्पा झायहि णाणमउ लहु सिव-सुक्खै लहेहि ॥७॥ [एकाकी यदि यास्यसि तर्हि परभावं त्यज । आत्मानं ध्यायस्व ज्ञानमयं लघु शिवसुखं लभसे ॥] पाठान्तर--१) अप-इक्कलउ, झ-इक्कलउ. २) प-जइसहि. ३) पबझ-सिवसुख. अर्थ-हे जीव ! यदि तू अकेला ही है तो परभावका त्याग कर और आत्माका ध्यान कर, जिससे तू शीघ्र ही ज्ञानमय मोक्षसुखको प्राप्त कर सके ।। ७० ॥ जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु इ को वि मुणेइ। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुहै (?) को वि हवेइ ॥७१॥ [यत् पापं अपि तत् पापं जानाति (?) सर्वः इति कः अपि जानाति । ___ यः पुण्यं अपि पापं इति भणति स बुधः कः अपि भवति ॥] पाठान्तर-१) अपझ-भणि. २) अपझ-सव्वु (सच्चु ) इक्को वि. ३) अपबझ-बहु. अर्थ-जो पाप है उसको जो पाप जानता है, यह तो सब कोई जानता है । परन्तु जो पुण्यको भी पाप कहता है, ऐसा पंडित कोई विरला ही होता है ।। ७१ ॥ जह लोहम्मिये णियड बुह तह सुण्णम्मिय जाणि । जे सुकै असुह परिचयहि ते वि हवंति हुँ णाणि ॥७२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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