Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 542
________________ दो० - ९७ ] योगसारः जो सम-सुक्ख - णिलीणु बुहु पुण पुण अप्पु मुणेइ । कम्मक्खउ करि सो वि फुड्ड लहु णिव्वाणु लहेई ।। ९३ ।। [ यः शमसौख्यनिलीनः बुधः पुनः पुनः आत्मानं जानाति । कर्मक्षयं कृत्वा स अपि स्फुटं लघु निर्वाणं लभते ॥ ] पाठान्तर - १) अपझ - लहेवि. अर्थ — जो शम और सुखमें लीन हुआ पण्डित बारबार आत्माको जानता है, वह निश्चय ही कर्मोंका क्षयंकर शीघ्र ही निर्वाण पाता है ।। ९३ ॥ पुरिसायार - पमाणु जिय अप्पा एहु पवित्तुं । जोइज्जइ गुण-गण- लिउं णिम्मल-तेय- फुरंतु ॥ ९४ ॥ [ पुरुषाकारप्रमाणः जीव आत्मा एव पवित्रः । दृश्यते गुणगणनिलयः निर्मलतेजः स्फुरन् ॥ ] पाठान्तर - १ ) अप-य बंभु, ब- पउत्तु. २) अपझ - गुणणिम्मलउ. ३) अपझ-फुरंति. अर्थ - हे जीव ! पुरुषाकार यह आत्मा पवित्र है, यह गुणांकी राशि है और यह निर्मल तेजको स्फुरित करती हुई दिखाई देती है ।। ९४ ॥ ३८१ जो अप्पा सुद्ध विमुणइ असुइ सरीर - विभिण्णु । सो जाणइ सत्थई सयले सासय- सुक्खहँ लीणु ॥ ९५ ॥ [यः आत्मानं शुद्धं अपि जानाति अशुचिशरीरविभिन्नम् । स जानाति शास्त्राणि सकलानि शाश्वत सौख्ये ( 2 ) लीनः ॥ ] Jain Education International पाठान्तर - १) अपझ - सत्थ य सयलु. अर्थ- जो शुद्ध आत्माको अशुचि शरीरसे भिन्न समझता है, वह शाश्वत सुखमें लीन होकर समस्त शास्त्रोंको जान जाता है ॥ ९५ ॥ जो वि जाणइ अप्पु परु णवि परभाउ चएई । सो जाउँ सत्थइँ सयले ण हु सिवसुक्खु लहे ॥ ९६ ॥ [ यः नैव जानाति आत्मानं परं नैव परभावं त्यजति । स जानातु शास्त्राणि सकलानि न खलु शिवसौख्यं लभते ॥ ] पाठान्तर - १) ब - परभाव २) अप-चएवि, झ चहेवि ३) ब - जाणइ. ४) अपझ - सत्य सयलु. ५) अपझ - लहेवि. अर्थ – जो न तो परमात्माको जानता है, और न परभावका त्याग ही करता है, वह भले ही समस्त शास्त्रोंको जान जाय, परन्तु वह मोक्षसुखको प्राप्त नहीं करता ॥ ९६ ॥ वज्जिय सयल - वियप्पइँ' परम-समाहि लहंति | विहि साणंदु कवि सो सिव-सुक्ख भणति ॥ ९७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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