Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 540
________________ दो० -८८ ] योगसारः ___ अर्थ-जिसके द्वारा देखा जाता है वह दर्शन है, जो निर्मल महान् आत्मा है वह ज्ञान है, तथा आत्माकी जो पुनः पुनः भावना की जाती है वह पवित्र चारित्र है ।। ८४ ॥ जहि अप्पा तेहि सयल-गुण केवलि एम भणंति । तिहि कारणएँ जोई फुड अप्पा विमल मुणंति ।। ८५॥ [ यत्र आत्मा तत्र सकलगुणाः केवलिनः एवं भणन्ति । तेन (?) कारणेन योगिनः स्फुटं आत्मानं विमलं जानन्ति ॥] पाठान्तर-१) अपझ-तिहि. २) अझ-केवल. ३) ब-तहि कारणिए. ४) अपझ-जीव. अर्थ-जहाँ आत्मा है वहाँ समस्त गुण हैं—ऐसा केवलियोंने कहा है । इसलिये योगी लोग निश्चयसे निर्मल आत्माको पहिचानते हैं ॥ ८५ ॥ एकल इंदिय-रहियउ मण-वय-काय-ति-सुद्धि । अप्पा अप्पु मुंणेहि तुहुँ लहु पार्वहि सिव-सिद्धि ॥ ८६ ॥ [एकाकी इन्द्रियरहितः मनोवाकायत्रिशुद्धया। आत्मन् आत्मानं जानीहि वं लघु प्राप्नोषि शिवसिद्धिम् ॥] पाठान्तर-१) अपझ-इक्कलउ. २) बझ-रहिउ. ३) ब-सूधि. ४) अपझ-मुणेइ. ५) अपझ-पावहु. ६) अपझ-सुद्धि. अर्थ-हे आत्मन् ! तू एकाकी, इन्द्रियरहित और मन वचन कायकी शुद्धिसे आत्माको जान; उससे तू शीघ्र ही मोक्षसिद्धिको प्राप्त करेगी ॥ ८६ ॥ जइ बद्धउँ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि णिभंतु । सहज-सरुवई जइ रमहि तो पावहि सिव संतु ॥८७ ॥ [ यदि बद्धं मुक्तं मन्यसे ततः बध्यसे निर्धान्तम् । __ सहजस्वरूपे यदि रमसे ततः प्राप्नोषि शिवं शान्तम् ॥] पाठान्तर-१) अपझ-बद्धो. २) ब-बंधिहि. ३) ब-सरूविं. ४) अ-रमइहि, पवझ-रमइ. अर्थ-यदि तू बद्धको मुक्त समझेगा तो निश्चयसे तू बँधेगा । तथा यदि तू सहजस्वरूपमें रमण करेगा तो शान्त निर्वाणको पावेगा ।। ८७ ॥ सम्माइट्टी-जीवडहँ दुग्गइ-गमणु ण होइ। जइ जाइ वि' तो दोसु णवि पुव्व-किउँ खवणेई ।। ८८॥ [सम्यग्दृष्टिजीवस्य दुर्गतिगमनं न भवति । ___ यदि याति अपि तर्हि (ततः?) दोषः नैव पूर्वकृतं क्षपयति ॥1 पाठान्तर-१) ब-जाइसि. २) ब-पुव्वुक्किउ, झ-पुव्वकियउ. ३) अपझ-खउणेइ. अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव कुगतियोंमें नहीं जाता। यदि कदाचित् वह जाता भी है तो इसमें सम्यक्त्वका दोष नहीं । इससे वह पूर्वकृत कर्मका ही क्षय करता है ॥ ८८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550