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३७८ योगीन्दु-विरचितः
[ दो० ८१पाठान्तर-१) अपझ-सो. २) अपझ-णर.
अर्थ-जो दससे रहित, दससे सहित और दस गुणोंसे सहित है, उसे निश्चयसे आत्मा कहा है ।। ८० ॥
अप्पा दंसणु णाणु मुणि अप्पा चरणु वियाणि । अप्पा संज, सील तउ अप्पा पञ्चक्खाणि ॥ ८१॥ [आत्मानं दर्शनं ज्ञानं जानीहि आत्मानं चरणं विजानीहि ।
आत्मानं संयम शीलं तपः आत्मानं प्रत्याख्यानम् ॥] पाठान्तर-१) अझ-संयम. २) अ-पच्चकोणु, ब-पञ्चष्पाणु, प-पञ्चक्खाण, झ-पचखाणि.
अर्थ--आत्माको ही दर्शन और ज्ञान समझो; आत्मा ही चारित्र है, और संयम, शील, तप और प्रत्याख्यान भी आत्माको ही मानो ॥ ८१ ॥
जो परियाणइ अप्प परु सो परु चयई णिभंतु। सो सण्णासु मुणेहि तुहुँ केवल-णाणि उत्तु ।। ८२॥ [यः परिजानाति आत्मानं स परं त्यजति निर्धान्तम् ।
तत् सन्न्यासं जानीहि वं केवलज्ञानिना उक्तम् ।।] पाठान्तर-१) ब-जो. २) अपझ-चयहि. ३) अपझ-केवलणाणिय.
अर्थ—जो निजको और परको जान लेता है वह भ्रान्तिरहित होकर परका त्याग कर देता है । हे जीव ! तू उसे ही संन्यास समझ—ऐसा केवलज्ञानीने कहा है ।। ८२ ॥
रयणत्तय-संजुत्त जिउ उत्तिमु तित्थु पवित्तुं । मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥८३ ।। [रत्नत्रयसंयुक्तः जीवः उत्तमं तीर्थं पवित्रम् ।
मोक्षस्य कारणं योगिन् अन्यः न तन्त्रः न मन्त्रः॥] पाठान्तर-१) ब-उत्तम तित्थ. २) अपझ-पउत्तु. ३) अपझ-८४.
अर्थ-हे योगिन् ! रत्नत्रययुक्त जीव ही उत्तम पवित्र तीर्थ है, और वही मोक्षका कारण है। अन्य कुछ मन्त्र तन्त्र मोक्षका कारण नहीं ॥ ८३ ॥
दसणु जं पिच्छियइ बुह अप्पा विमल महंतु । पुणु पुणु अप्पा भावियएँ सो चारित्त पवित्त ॥ ८४॥ [ दर्शनं यत् प्रेक्ष्यते बुधः (बोधः) आत्मा विमलः महान् ।
पुनः पुनर् आत्मा भाव्यते तत् चारित्रं पवित्रम् ॥] पाठान्तर-१) ब-जहिं. २) ब-एहु णिभंतु. ३) अप-भावियइए, व-झाइयइ, झ-भावियइ. ४) अझ-८३.
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