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दो० -४६]
योगसारः पाठान्तर-१) अपब-तित्थहँ २) ब-देउ जि णवि. ३) ब-इउ सुइकेवली.
अर्थ-श्रुतकेवलीने कहा है कि तीर्थोंमें देवालयोंमें देव नहीं हैं, जिनदेव तो देह-देवालयमें विराजमान हैं -इसे निश्चित समझो ॥ ४२ ॥
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहि णिएई । हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्ध भिक्खै भमेइ ।। ४३ ॥ [ देहदेवालये देवः जिनः जनः देवालयेषु (तं) पश्यति ।
हास्यं मम प्रतिभाति इह सिद्धे (सति) भिक्षां भ्रमति ।।] पाठान्तर-१) अ-जिणि देवालेहि णएइ, प-जिणि देवलिहि णएइ, झ-जिणदेवलिहि गएई. २) अ-परिहाइ हु, पझ-परिहोइ इहु. ३) अ-भक्ख, ब-सिद्धा-भिक्ख, झ-सिद्धभिक्ख.
अर्थ-जिनदेव देह-देवालयमें विराजमान हैं; परन्तु जीव ( ईंट पत्थरोके) देवालयोमें उनके दर्शन करता है—यह मुझे कितना हास्यास्पद मालूम होता है। यह बात ऐसी ही है, जैसे कोई मनुष्य सिद्ध हो जानेपर भिक्षाके लिये भ्रमण करे. ।। ४३ ॥
मूढा देवलि देउ णवि णवि सिलि लिप्पह चित्ति । देहा-देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समचित्ति ॥४४॥ [मूढ देवालये देवः नैव नैव शिलायां लेप्ये चित्रे ।
देहदेवालये देवः जिनः तं बुध्यस्ख समचित्ते ॥] पाठान्तर-१) अपब-सिल २) अपझ-बु(उच्चइ.
अर्थ-हे मूढ़ ! देव किसी देवालयमें विराजमान नहीं हैं, इसी तरह किसी पत्थर, लेप अथवा चित्रमें भी देव विराजमान नहीं। जिनदेव तो देह-देवालयमें रहते हैं—इस बातको तू समचित्तसे समझ ॥ ४४ ॥
तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु वि कोइ भणेइ । देहा-देउलि जो मुणइ सो बुह को वि हवेइ ॥४५॥ [तीर्थे देवकुले देवः जिनः (इति) सर्वः अपि कश्चित् भणति ।
देहदेवकुले यः जानाति स बुधः कः अपि भवति ॥] पाठान्तर-१) ब-सोव्युइ (?). २) प-देहादेवल, ब-देहादेवलि.
अर्थ-सब कोई कहते हैं कि जिनदेव तीर्थमें और देवालयमें विद्यमान हैं। परन्तु जो जिनदेवको देह-देवालयमें विराजमान समझता है ऐसा पंडित कोई विरला ही होता है ॥ ४५ ॥
जइ जर-मरण-करालियां तो जिय धम्म करेहि। धम्म-रसायणु पियहि तुहुँ जिम अजरामर होहि ॥४६॥ [ यदि जरामरणकरालितः तर्हि जीव धर्म कुरु ।
धर्मरसायनं पिब त्वं यथा अजरामरः भवसि ।।] पर०३४
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