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-दोहा १०४ ]
परमात्मप्रकाशः आत्मापि परः अपि विज्ञायते येन आत्मना विज्ञातेन ।
तं निजात्मानं जानीहि त्वं योगिन् ज्ञानबलेन ॥ १०३ ॥ अप्पु वि पर वि वियाणियइ जे अप्पें मुणिएण आत्मापि परोऽपि विज्ञायते येन आत्मना विज्ञातेन सो णिय अप्पा जाणि तुहं तं निजात्मानं जानीहि खम् ।जोइयणाणबलेण हे योगिन् , केन कृता जानीहि । ज्ञानबलेनेति । अयमत्रार्थः । वीतरागसदानन्दैकस्वभावेन येनात्मना ज्ञातेन स्वात्मा परोऽपि ज्ञायते तमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानभावनासमुत्पभपरमानन्दमुखरसास्वादेन जानीहि तन्मयो भूत्वा सम्यगनुभवेतिभावार्थः॥१०३॥ अतः कारणात् ज्ञानं पृच्छति
णाणु पयासहि परमु महु किं अण्णे बहुएण । जेण णियप्पा जाणियह सामिय एक-खणेण ॥ १०४ ॥ ज्ञानं प्रकाशय परमं मम किं अन्येन बहुना।
येन निजात्मा ज्ञायते स्वामिन् एकक्षणेन ॥ १०४ ।। णाणु पयासहि परमुमहु ज्ञान प्रकाशय परमं मम। किं अण्णे बहुएण किमन्येन ज्ञानरहितेन बहुना। जेण णियप्पा जाणियइ येन ज्ञानेन निजात्मा ज्ञायते, सामिय एकखणेण हे स्वामिन् नियतकालेनैकक्षणेनेति । तथाहि । प्रभाकरभट्टः पृच्छति। किं पृच्छति। हे भगवन् येन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन क्षणमात्रेणैव शुद्धबुद्धकस्वभावो निजात्मा ज्ञायते तदेव ज्ञानं कथय स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे जान, ऐसा कहते हैं येन आत्मना विज्ञातेन] जिस आत्माको जाननेसे [आत्मा अपि] आप और [परः अपि] पर सब पदार्थ [विज्ञायते] जाने जाते हैं, [तं निजात्मानं] उस अपने आत्माको [योगिन्] हे योगी, [त्वं] तू [ज्ञानबलेन] आत्मज्ञानके बलसे [जानीहि] जान ॥ भावार्थ-रागादि विकल्प-जालसे रहित सदा आनन्द स्वभाव जो निज आत्मा उसके जाननेसे निज और पर सब जाने जाते हैं, इसलिये हे योगी, हे ध्यानी, तू उस आत्माको वीतराग निर्विकल्प-स्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे उत्पन्न परमानन्द सुखरसके आस्वादसे जान, अर्थात् तन्मयी होकर अनुभव कर । स्वसंवेदन ज्ञान (आपकर अपनेको अनुभव करना) ही सार है । ऐसा उपदेश श्रीयोगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टको दिया ॥१०३॥ __ अब प्रभाकरभट्ट महान् विनयसे ज्ञानका स्वरूप पूछता है-स्वामिन्] हे भगवन्, [येन ज्ञानेन] जिस ज्ञानसे [एक क्षणेन] क्षणभरमें [निजात्मा] अपना आत्मा [ज्ञायते] जाना जाता है, वह [परमं ज्ञानं] परम ज्ञान [मम] मेरे [प्रकाशय] प्रकाशित करो, [अन्येन बहुना] और बहुत विकल्प-जालोंसे [किम्] क्या फायदा ? कुछ भी नहीं ॥ भावार्थ-प्रभाकरभट्ट श्रीयोगींद्रदेवसे पूछता है, कि हे स्वामी, जिस वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकर क्षणमात्रमें शुद्ध बुद्ध स्वभाव अपना आत्मा जाना जाता है, वह ज्ञान मुझको प्रकाशित करो, दूसरे विकल्प-जालोंसे कुछ फायदा नहीं है, क्योंकि ये रागादिक विभावोंके बढानेवाले हैं । सारांश यह है, कि मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंसे
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