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श्रीमद्-योगीन्दुदेव-विरचितः योगसार: हिन्दी भाषानुवादसहितः
म्मिल-झाण-परिट्ठयां कम्म कलंक डहेवि । अप्पा लउ जेण परु ते परमप्प णवेवि ॥ १ ॥ [ निर्मलध्यानप्रतिष्ठिताः कर्मकलङ्कं दग्ध्वा ।
आत्मा लब्धः येन परः तान् परमात्मनः नत्वा ॥ ] पाठान्तर -- १) अपझ- 'परद्विया.
अर्थ — जो निर्मल ध्यानमें स्थित हैं, और जिन्होंने कर्म-मलको भस्म कर परमात्मपदको प्राप्त कर लिया है, उन परमात्माओंको नमस्कार करके - ॥ १ ॥
घाइ - चउक्कहँ कि विलउ णंत - चक्कु पदिहु ।
तह जिण इंदहँ पय णविवि अक्खमि कव्वु सु-इहु ॥ २ ॥
[ ( येन) घातिचतुष्कस्य कृतः विलयः अनन्तचतुष्कं प्रदर्शितम् ।
तस्य जिनेन्द्रस्य पादौ नत्वा आख्यामि काव्यं सुदिष्टम् ॥ ] पाठान्तर - १ ) अपझ - चउक्क. २) प - ताह, ब- तहि. ३) प - सुट्ट.
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अर्थ - जिसने चार घातिया कर्मोंका नाश कर अनन्तचतुष्टयको प्रकट किया है, उस जिनेन्द्रके चरणों को नमस्कार कर, यहाँ अभीष्ट काव्यको कहता हूँ ॥ २ ॥
संसारहँ भय-भीर्यहँ मोक्खहँ लालसयाह । अप्पा - संबोहण - कईं कैंय दोहा एकमणाहं ॥ ३ ॥
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[ संसारस्य भयभीतानां मोक्षस्य लालसकानाम् । आत्मसंबोधनकृते कृताः दोहाः एकमनसाम् ॥ ]
पाठान्तर - १ ) अपब- भयभीत, ब- भयभीयाहं. बोहण, पच-संवाहणकयहं. ४) बझ दोहा एकमणाह.
२) झ - लालसियाहं ३) अझ अप्पा कयइ ५) अप - अकमणाहं.
अर्थ – जो संसारसे भयभीत हैं और मोक्षके लिये जिनकी लालसा है, उनके संबोधनके लिये
एकाग्र चित्तसे मैंने इन दोहोंकी रचना की है ॥ ३ ॥
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