Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 523
________________ योगीन्दु-विरचितः [ दो० १२ अर्थ - हे जीव ! यदि तू आत्माको आत्मा समझेगा, तो निर्वाण प्राप्त करेगा । तथा यदि तू पर पदार्थोंको आत्मा मानेगा, तो तू संसार में परिभ्रमण करेगा ॥ १२ ॥ इच्छा - रहिय तव करहि अप्पा अप्पु मुणेहि । तो लहु पावैहि परम-गई फुड्डु संसारु ण ऍंहि ॥ १३ ॥ [ इच्छारहितः तपः करोषि आत्मन् आत्मानं जानासि । ३६२ ततः लघु प्राोषि परमगतिं स्फुटं संसारं न आयासि ।। ] पाठान्तर - १ ) अ - रहिओ, पद्म- रहिउ २) अ - पहु पावइ, पझ - पावइ ३) ब - लहु संसारु मुएहि. अर्थ - हे आत्मन् ! यदि तू इच्छा रहित होकर तप करे और आत्माको समझे, तो तू शीघ्र ही परमगतिको पा जाय, और तू निश्चयसे फिर संसारमें न आवे ॥ १३ ॥ परिणामे बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियणि । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ तहभाव हुँ परियाणि ॥ १४ ॥ [ परिणामेन बन्धः एव कथितः मोक्षः अपि तथा एव विजानीहि । इति ज्ञात्वा जीव त्वं तथाभावान् खलु परिजानीहि ॥ ] पाठान्तर - १ ) पव-परिणामि, अ-परिणाम बंधु ज कहियों. २) अपझ - जि ३) अपझ - वियाण. ४) झ-जाणेविण ५) पद्म- जीउ ६ ) अप-तहि भावह, ब-तहु भाव हु, झ तह भाव हि. अर्थ — परिणामसे ही जीवको बंध कहा है और परिणामसे ही मोक्ष कहा है—यह समझकर, हे जीव ! तू निश्चयसे उन भावोंको जान ॥ १४ ॥ अह पुणु अप्पा व मुणहि पुण्णु जि करहि असेसं । तो वि पार्वेहि सिद्धि-सुह पुणु संसारु भर्स ॥ १५ ॥ [ अथ पुनरात्मानं नैव जानासि पुण्यं एव करोषि अशेषम् । ततः अपि न प्राप्नोषि सिद्धिसुखं पुनः संसारं भ्रमसि ॥ ] पाठान्तर - १) झ - अप्पाणु वि. २) बझ-असेसु. ३) अपबझ - वि णु. ४) पावहु. ५) ब - फुडु. ६) बझ - भमेसु. अर्थ — हे जीव ! यदि तू आत्माको नहीं जानेगा और सब पुण्य ही पुण्य करता रहेगा, तो भी तू सिद्धसुखको नहीं पा सकता, किन्तु पुनः पुनः संसारमें ही भ्रमण करेगा ॥ १५ ॥ अप्पा- दंसणु के परु अण्णु ण किं पि वियाणि । मोक्ख कारण जोइयां णिच्छइँ एहउ जाणि ॥ १६ ॥ [ आत्मदर्शनं एकं परं अन्यत् न किमपि विजानीहि । मोक्षस्य कारणं योगिन् निश्चयेन एतत् जानीहि ॥ ] पाठान्तर - १ ) ब - इक्कु २) अझ जोईया. ३) अपझ - णिच्छय एहो जाणि अर्थ -- हे योगिन् ! एक परम आत्मदर्शन ही मोक्षका कारण है, अन्य कुछ भी मोक्षका कारण नहीं, यह तू निश्चय समझ ॥ १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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