Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 521
________________ - योगीन्दु-विरचितः कालु अणाइ अणाइ जिउ भव-सायेरु जि अनंतुं । मिच्छा-दंसण-मोहियउ णवि सुह दुक्ख जि पन्तु ॥ ४ ॥ [ कालः अनादिः अनादिः जीवः भवसागरः एव अनन्तः । मिथ्यादर्शनमोहितः नैव सुखं दुःखमेव प्राप्तवान् ॥ ] २) अप-अणतो. ३) अ-मोहि, पद्म-मोहिउ. पाठान्तर- १) अपझ - सायर. अर्थ — काल अनादि है, जीव अनादि है, और भवसागर अनन्त है । उसमें मिथ्यादर्शनसे मोहित जीवने दुःख ही दुःख पाया है, सुख नहीं पाया ॥ ४ ॥ ३६० जइ बीहडे चउ - गइ -गमणां तो पर भाव चहि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिव-सुक्ख लहेहि ॥ ५ ॥ [ यदि भीतः चतुर्गतिगमनात् ततः परभावं त्यज । आत्मानं ध्याय निर्मलं यथा शिवसुखं लभसे ।। ] पाठान्तर - १) ब - वीहइ. २) झ-गमणु. ३) अझ - तौ ... चएवि, प-तौ... चएदि, ब- तो... चवेहि . ४) अवझ - लहेवि. अर्थ - हे जीव ! यदि तू चतुर्गतिके भ्रमणसे भयभीत है, तो परभावका त्याग कर, और निर्मल आत्माका ध्यान कर, जिससे तू मोक्ष- सुखको प्राप्त कर सके || ५ || ति-पयारो अप्पा मुणहि परु अंतरु बहिरप्पु । पर जायहि अंतर - सहिउ बाहिरु चयहि णिभंतु ॥ ६ ॥ [त्रिमकारः आत्मा (इति) जानीहि परः आन्तरः बहिरात्मा । परं ध्याय आन्तरसहितः बाह्यं त्यज निर्भ्रान्तम् ॥ ] अर्थ - परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा इस तरह आत्माके तीन प्रकार समझने चाहिये । हे जीव ! अन्तरात्मासहित होकर परमात्माका ध्यान कर, और भ्रान्ति रहित होकर बहिरात्माको त्याग ॥६॥ मिच्छा - दंसण - मोहियउ परु अप्पा ण मुणेई । सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुण संसार भमेइ ॥ ७ ॥ Jain Education International [ दो० ४-८ [ मिथ्यादर्शनमोहितः परं आत्मा न मनुते । स बहिरात्मा जिनभणितः पुनः संसारं भ्रमति ॥ ] पाठान्तर - १) अ - मोहियओ, झ-मोहिओ. २) अपब- परु ( रो ) अप्पणो ( णु ) मुणइ. अर्थ — जो मिथ्यादर्शनसे मोहित जीव परमात्माको नहीं समझता, उसे जिनभगवान्ने बहिरात्मा कहा है; वह जीव पुनः पुनः संसारमें परिभ्रमण करता है ॥ ७ ॥ जो परियाणइ अप्पे परु जो परभाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुहुं सो संसारु मुएइ ॥ ८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550