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- योगीन्दु-विरचितः
कालु अणाइ अणाइ जिउ भव-सायेरु जि अनंतुं । मिच्छा-दंसण-मोहियउ णवि सुह दुक्ख जि पन्तु ॥ ४ ॥ [ कालः अनादिः अनादिः जीवः भवसागरः एव अनन्तः । मिथ्यादर्शनमोहितः नैव सुखं दुःखमेव प्राप्तवान् ॥ ]
२) अप-अणतो.
३) अ-मोहि, पद्म-मोहिउ.
पाठान्तर- १) अपझ - सायर. अर्थ — काल अनादि है, जीव अनादि है, और भवसागर अनन्त है । उसमें मिथ्यादर्शनसे मोहित जीवने दुःख ही दुःख पाया है, सुख नहीं पाया ॥ ४ ॥
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जइ बीहडे चउ - गइ -गमणां तो पर भाव चहि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिव-सुक्ख लहेहि ॥ ५ ॥ [ यदि भीतः चतुर्गतिगमनात् ततः परभावं त्यज । आत्मानं ध्याय निर्मलं यथा शिवसुखं लभसे ।। ]
पाठान्तर - १) ब - वीहइ. २) झ-गमणु. ३) अझ - तौ ... चएवि, प-तौ... चएदि, ब- तो... चवेहि . ४) अवझ - लहेवि.
अर्थ - हे जीव ! यदि तू चतुर्गतिके भ्रमणसे भयभीत है, तो परभावका त्याग कर, और निर्मल आत्माका ध्यान कर, जिससे तू मोक्ष- सुखको प्राप्त कर सके || ५ ||
ति-पयारो अप्पा मुणहि परु अंतरु बहिरप्पु ।
पर जायहि अंतर - सहिउ बाहिरु चयहि णिभंतु ॥ ६ ॥ [त्रिमकारः आत्मा (इति) जानीहि परः आन्तरः बहिरात्मा । परं ध्याय आन्तरसहितः बाह्यं त्यज निर्भ्रान्तम् ॥ ]
अर्थ - परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा इस तरह आत्माके तीन प्रकार समझने चाहिये । हे जीव ! अन्तरात्मासहित होकर परमात्माका ध्यान कर, और भ्रान्ति रहित होकर बहिरात्माको त्याग ॥६॥
मिच्छा - दंसण - मोहियउ परु अप्पा ण मुणेई ।
सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुण संसार भमेइ ॥ ७ ॥
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[ दो० ४-८
[ मिथ्यादर्शनमोहितः परं आत्मा न मनुते ।
स बहिरात्मा जिनभणितः पुनः संसारं भ्रमति ॥ ]
पाठान्तर - १) अ - मोहियओ, झ-मोहिओ. २) अपब- परु ( रो ) अप्पणो ( णु ) मुणइ. अर्थ — जो मिथ्यादर्शनसे मोहित जीव परमात्माको नहीं समझता, उसे जिनभगवान्ने बहिरात्मा कहा है; वह जीव पुनः पुनः संसारमें परिभ्रमण करता है ॥ ७ ॥
जो परियाणइ अप्पे परु जो परभाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुहुं सो संसारु मुएइ ॥ ८ ॥
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