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________________ दो० -१२] योगसारः [ यः परिजानाति आत्मानं परं यः परभावं त्यजति । स पण्डितः आत्मा (इति) जानीहि स संसारं मुञ्चति ॥] पाठान्तर-१) अपझ-अप्प २) अप-पिंडउ अप्पा मुणह; झ-मुणिहिं. अर्थ-जो परमात्माको समझता है, और जो परभावका त्याग करता है, उसे पंडित-आत्मा ( अन्तरात्मा) समझो । वह जीव संसारको छोड़ देता है ।। ८ ॥ णिम्मलु णिकलु सुद्ध जिणु विण्हे बुद्ध सिव संतु। सो परमप्पा जिण-भणिउ एहउँ जाणि णिभंतु ॥९॥ [निर्मलः निष्कलः शुद्धः जिनः विष्णुः बुद्धः शिवः शान्तः । स परमात्मा जिनभणितः एतत् जानीहि निर्धान्तम् ।।] पाठान्तर-१) ब-किण्हु. २) अ-एहो, झ-एहवउ. अर्थ-जो निर्मल, निष्कल, शुद्ध, जिन, विष्णु, बुद्ध, शिव और शान्त है, उसे जिनभगवान्ने परमात्मा कहा है-इसमें कुछ भी भ्रान्ति न करनी चाहिये ॥ ९ ॥ देहादिउँ जे परि कहियो ते अप्पाणु मुणेइ । सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसारु भमेइ ॥१०॥ [ देहादयः ये परे कथिताः तान् आत्मानं जानाति । स बहिरात्मा जिनभणितः पुनः संसारं भ्रमति ॥] पाठान्तर-१) अपझ-देहादिक जो. २) ब-पर कहिय. ३) प-णं अर्थ-देह आदि जो पदार्थ पर कहे गये हैं, उन पदार्थोंको ही जो आत्मा समझता है, उसे जिनभगवान्ने बहिरात्मा कहा है । वह जीव संसारमें फिर फिरसे परिभ्रमण करता है ॥ १० ॥ देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पाणु ण होहि । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ अप्पा अप्प मुणेहि ॥११॥ [ देहादयः ये परे कथिताः ते आत्मा न भवन्ति । इति ज्ञात्वा जीव त्वं आत्मा आत्मानं जानीहि ॥] पाठान्तर-१) अप-अप्पणा. २) पझ-जाणिविण (°पिण). अर्थ-देह आदि जो पदार्थ पर कहे गये हैं, वे पदार्थ आत्मा नहीं होते—यह जानकर, हे जीव ! तू आत्माको आत्मा पहिचान ।। ११ ॥ अप्पा अप्पउ जइ मुणहि तो' णिव्वाणु लहेहि । पर अप्पा जई मुणहि तुहुँ तो संसार भमेहि ॥१२॥ [आत्मन् आत्मानं यदि जानासि ततः निर्वाणं लभसे । परं आत्मानं यदि जानासि त्वं ततः संसारं भ्रमसि ॥] पाठान्तर-१) ब-तौ (तउ ?). २) अ-जो, झ-जउ. ३) पन-मुणिहि. ४) अप-संसारुमुवेहि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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