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दोहा ८ ]
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मोक्षमिति । तथाहि । यद्यतीन्द्रियपरमाह्लादरूपमविनश्वरं सुखं न ददाति मोक्षस्तर्हि कथमुत्तमो भवति उत्तमत्वाभावे च केवलज्ञानादिगुणसहिताः सिद्धा भगवन्तः किमर्थ निरन्तरं सेवन्ते च चेत् । तस्मादेव ज्ञायते तत्सुखमुत्तमं ददातीति । उक्तं च सिद्धमुखम् - " आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयबद्वीतबाधं विशालं, वृद्धिहासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्द्वभावम् । अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकालमुत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥ अत्रेदमेव निरन्तरमभिलषणीयमिति भावार्थः ॥ ७ ॥
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अथ सर्वेषां परमपुरुषाणां मोक्ष एव ध्येय इति प्रतिपादयति
परमात्मप्रकाशः
हरि-हर-बंभु वि जिणवर वि मुणि-वर-विंद वि भव्व । परम- णिरंजणि मणु धरिवि मुक्खु जि झायहि सव्व ॥ ८ ॥ हरिहरब्रह्माणोऽपि जिनवरा अपि मुनिवरवृन्दान्यपि भव्याः ।
परमनिरञ्जने मनः धृत्वा मोक्ष एव ध्यायन्ति सर्वे ॥ ८ ॥
हरिहर इत्यादि । हरिहरबंभु वि हरिहरब्रह्माणोऽपि जिणवर वि जिनवरा अपि मुणिवरविंद विनिववृन्दान्यपि भव्य शेषभव्या अपि । एते सर्वे किं कुर्वन्ति । परमणिरंजणि परमनिरञ्जनाभिधाने निजपरमात्मस्वरूपे । मणु मनः धरिवि विषयकषायेषु गच्छत् सद् व्यावृत्त्य धृत्वा पश्चात् मुक्खु जि मोक्षमेव झायहिं ध्यायन्ति सव्व सर्वेऽपि इति । तद्यथा । हरिहरादयः सर्वेऽपि प्रसिद्धपुरुषाः ख्यातिपूजालाभादिसमस्तविकल्पजालेन शून्ये, सिद्धों का सुख दूसरी जगह भी ऐसा कहा है “आत्मोपादान" इत्यादि । इसका अभिप्राय यह है कि इस अध्यात्मज्ञानसे सिद्धोंके जो परमसुख हुआ है, वह कैसा है कि अपनी अपनी जो उपादानशक्ति उसीसे उत्पन्न हुआ है, परकी सहायतासे नहीं है, स्वयं ( आप ही ) अतिशयरूप है, सब बाधाओंसे रहित है, निराबाध है, विस्तीर्ण है, घटती-बढतीसे रहित है, विषय-विकारसे रहित है, भेदभावसे रहित है, निर्द्वन्द है, जहाँपर वस्तुकी अपेक्षा ही नहीं है, अनुपम है, अनंत है, अप है, जिसका प्रमाण नहीं, सदा काल शाश्वत है, महा उत्कृष्ट है, अनंत सारता लिये हुए है । ऐसा परमसुख सिद्धोंके है, अन्यके नहीं है । यहाँ तात्पर्य यह है कि हमेशा मोक्षका ही सुख अभिलाषा करने योग्य है, और संसार - पर्याय सब हेय है ||७||
आगे सभी महान पुरुषोंके मोक्ष ही ध्यावने योग्य है ऐसा कहते हैं - [ हरिहरब्रह्माणोऽपि ] नारायण वा इन्द्र रुद्र अन्य ज्ञानी पुरुष [ जिनवरा अपि ] श्रीतीर्थंकर परमदेव [ मुनिवरवृंदान्यपि ] मुनीश्वरोके समूह तथा [ भव्याः ] अन्य भी भव्यजीव [ परमनिरंजने] परम निरंजनमें [मनः धृत्वा ] मन रखकर [ सर्वे ] सब ही [ मोक्षं] मोक्षको [ एव] ही [ ध्यायंति ] ध्यावते हैं । यह मन विषयकषायोंमें जो जाता है, उसको पीछे लौटाकर अपने स्वरूपमें स्थिर अर्थात् निर्वाणका साधनेवाला करते हैं | भावार्थ —–श्री तीर्थंकरदेव तथा चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, महादेव इत्यादि सब प्रसिद्ध पुरुष अपने शुद्ध ज्ञान अखंड स्वभाव जो निज आत्मद्रव्य उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप
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