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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १५५नश्यति शोषोऽन्तर्दाह इति । अत्राध्यात्मरतिः स्वाधीना विच्छेदविघ्नौघरहिता च, भोगरतिस्तु पराधीना वह्नरिन्धनैरिव समुद्रस्य नदीसहस्रैरिवातृप्तिकरा च । एवं ज्ञात्वा भोगसुखं त्यक्त्वा " एदम्हि रदो णिचं संतुट्ठो होदि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो तो होहदि उत्तमं सुक्खं ॥" इति गाथाकथितलक्षणे अध्यात्मसुखे स्थित्वा च भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् । तथा चोक्तम्"तिणकटेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं । ण इमो जीवो सक्को तिप्पेहूँ कामभोगेहिं ॥"। अध्यात्मशब्दस्य व्युत्पत्तिः क्रियते-मिथ्यात्वविषयकषायादिबहिर्द्रव्ये निरालम्बनत्वेनात्मन्यनुष्ठानमध्यात्मम् ।। १५४ ॥ अथात्मनो ज्ञानस्वभावं दर्शयति
अप्पहँ णाणु परिच्चयवि अण्णु ण अस्थि सहाउ । इउ जाणेविणु जोइयह परहँ म बंधउ राउ ॥ १५५ ।। आत्मनः ज्ञानं परित्यज्य अन्यो न अस्ति स्वभावः ।
इदं ज्ञात्वा योगिन् परस्मिन् मा बधान रागम् ॥ १५५ ॥ अप्पहं इत्यादि । अप्पहं शुद्धात्मनः णाणु परिच्चयवि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं त्यक्त्वा अण्णु ण अत्थि सहाउ अन्यो ज्ञानाद्विभिन्नः स्वभावो नास्ति इउ जाणेविणु इदमात्मनः शुद्धात्मज्ञानं स्वभावं ज्ञात्वा जोइयहु योगिन् परहं म बंधउ राउ परस्मिन् शुद्धात्मनो विलक्षणे देहे रागादिकं मा कुरु तस्मात् । अत्रात्मनः शुद्धात्मज्ञानस्वरूपं ज्ञात्वा रागादिकं त्यक्त्वा च निरन्तरं भावना कर्तव्येत्यभिमायः॥ १५५ ॥ अध्यात्मकी प्रीति हैं, वह स्वाधीनता है, इसमें कोई विघ्न नहीं है, और भोगोंका अनुराग वह पराधीनता है । भोगोंको भोगते कभी तृप्ति नहीं होती, जैसे अग्नि ईंधनसे तृप्त नहीं होती और सैकड़ों नदियोंसे समुद्र तृप्त नहीं होता है । ऐसा ही समयसारमें कहा है, कि हंस (जीव), तू इस आत्मस्वरूपमें ही सदा लीन हो, और सदा इसीमें संतुष्ट हो । इसीसे तू तृप्त होगा और इसीसे ही तुझे उत्तम सुखकी प्राप्ति होगी । इस कथनसे अध्यात्म-सुखमें ठहरकर निजस्वरूपकी भावना करनी चाहिये, और कामभोगोंसे कभी तृप्ति नहीं हो सकती । ऐसा कहा भी है, कि जैसे तृण, काठ आदि ईंधनसे अग्नि तृप्त नहीं होती, और हजारों लदियोंसे लवणसमुद्र तृप्त नहीं होता, उसी तरह यह जीव काम भोगोंसे तृप्त नहीं होता । इसलिये विषय-सुखोंको छोडकर अध्यात्मसुखका सेवन करना चाहिये । अध्यात्मसुखका शब्दार्थ करते हैं-मिथ्यात्व विषय कषाय आदि बाह्य पदार्थोंका अवलम्बन (सहारा) छोडना और आत्मामें तल्लीन होना वह अध्यात्म है ॥१५४।।
आगे आत्माका ज्ञानस्वभाव दिखलाते हैं-आत्मनः] आत्माका निजस्वभाव [ज्ञानं परित्यज्य] वीतराग स्वसंवेदनज्ञानके सिवाय [अन्यः स्वभावः] दूसरा स्वभाव [न अस्ति] नहीं है, आत्मा केवलज्ञानस्वभाव है, [इति ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [योगिन्] हे योगी, [परस्मिन्] परवस्तुसे [रागं] प्रीति [मा बधान] मत बाँध ॥ भावार्थ-पर जो शुद्धात्मासे भिन्न देहादिक उनमें राग मत कर,
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