Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 475
________________ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २१४देहे त्रिभुवने सर्वदेहिनां संसारिणां देहे । पुनरपि कीदृशं यत् । जं तत्तं दिव्वदेहं यत् शुद्धास्मतत्त्वं दिव्यदेहं दिव्यं केवलज्ञानादिशरीरम् । शरीरमिति कोऽर्थः । स्वरूपम् । पुनश्च कीदृशं यत् । तिहुयणगुरुगं अव्यावाधानन्तसुखादिगुणेन त्रिभुवनादपि गुरुं पूज्यमिति त्रिभुवनगुरुकम् । पुनरपि किंरूपं यत् । सिज्झए सिद्धयति निष्पत्तिं याति । क । संतजीवे ख्यातिपूजालाभादिसमस्तमनोरथविकल्पजालरहितलेन परमोपशान्तजीवस्वरूपे इत्यभिप्रायः ॥२१३।। अथ ग्रन्थस्यावसाने मङ्गलार्थमाशीर्वादरूपेण नमस्कारं करोति परम-पय-गयाणं भासओ दिव्य-काओ मणसि मुणिवराणं मुक्खदो दिव्व-जोओ। विसय-सुह-रयाणं दुल्लहो जो हु लोए जयउ सिव-सरुवो केवलो को वि बोहो ॥ २१४ ।। परमपदगतानां भासको दिव्यकायः मनसि मुनिवराणां मोक्षदो दिव्ययोगः । विषयसुखरतानां दुर्लभो यो हि लोके जयतु शिवस्वरूपः केवलः कोऽपि बोधः ॥ २१४ ॥ जयउ सर्वोत्कर्षेण वृद्धिं गच्छतु । कोऽसौ । दिब्वकाओ परमौदारिकशरीराभिधानदिव्यकायस्तदाधारो भगवान् कथंभूतः। भासओ दिवाकरसहस्रादप्यधिक तेजस्त्वाद्भासकः प्रकाशकः । केषां कायः। परमपयगयाणं परमानन्तज्ञानादिगुणास्पदं यदहत्पदं तत्र गतानाम् । न केवलं दिव्यकायो जयतु । दिव्वजोओ द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानो वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपो दिव्ययोगः । कथंभूतः । मोक्खदो मोक्षप्रदायकः। क जयतु । मणसि धारण करता है, [त्रिभुवनगुरुकं] तीन भुवनमें श्रेष्ठ है, [शांतजीवे सिध्यति] जिसको आराधकर शांतपरिणामी संतपुरुष सिद्धपद पाते हैं । भावार्थ-ऐसा वह चैतन्यतत्त्व जिसके चित्तमें प्रगट हुआ है, वही साधु सिद्धिको पाता है । अव्याबाध अनंतसुख आदि गुणोंकर वह तत्त्व तीन लोकका गुरु है, संतपुरुषोंके ही हृदयमें वह तत्त्व सिद्ध होता है । कैसे हैं संत ? जो अपनी बडाई, अपनी प्रतिष्ठा और लाभादि समस्त मनोरथों और विकल्पजालों से रहित है, जिन्होंने अपना स्वरूप परमशांतभावरूप पा लिया है ॥२१३॥ ___ आगे ग्रंथके अन्तमंगलके लिये आशीर्वादरूप नमस्कार करते हैं-[दिव्यकायः] जिसका ज्ञान आनंदरूप शरीर है, अथवा [परमपदगतानां भासकः] अरहंतपदको प्राप्त हुए जीवोंका प्रकाशमान परमौदारिक शरीर है, ऐसा परमात्मतत्त्व [जयतु] सर्वोत्कर्षपनेसे वृद्धिको प्राप्त होवे । वह परमौदारिक शरीर ऐसा है, कि जिसका तेज हजारों सूर्योंसे अधिक है, अर्थात् सकल प्रकाशी है। जो परमपदको प्राप्त हुए केवली है, उनको तो साक्षात् दिव्यकाय पुरुषाकार भासता है, [मुनिवराणां] और जो महामुनि हैं, उनके [मनसि] मनमें [दिव्ययोगः] द्वितीय शुक्लध्यानरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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