Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 477
________________ ३१६ योगीन्दुदेवविरचितः टीकाकारस्यान्तिमकथनम् अत्र ग्रन्थे प्रचुरणे पदानां सन्धिर्न कृतः, वाक्यानि च भिन्नभिन्नानि कृतानि सुखबोधार्थम् । किं च परिभाषासूत्रं पदयोः संधिर्विवक्षितो न समासान्तरं तयोः तेन कारणेन लिङ्गवचनक्रियाकारकसंधिसमासविशेष्यविशेषण वाक्य समाप्त्यादिकं दूषणमत्र न ग्राह्यं विद्वद्भिरिति । इदं परमात्मप्रकाशवृत्तेर्व्याख्यानं ज्ञात्वा किं कर्तव्यं भव्यजनैः । सहजशुद्धज्ञानानन्दैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं निजनिरञ्जनशुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानन्दरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन स्वसंवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभपञ्चेन्द्रियविषयव्यापार टीकाकारका अंतिम कथन ५०५58524X संधि, समास, इस ग्रन्थ में बहुधा पदोंकी संधि नहीं की, और वचन भी जुदे जुदे सुखसे समझने के लिये रक्खे गये हैं, समझनेके लिये कठिन संस्कृत नहीं रक्खी, इसलिये यहाँ लिंग, वचन, क्रिया, कारक, विशेष्य, विशेषणके दोष न लेना । जो पंडितजन विशेषज्ञ हैं, वे ऐसा समझें कि यह ग्रंथ बालबुद्धियोंके समझनेके लिये सुगम किया है । इस परमात्मप्रकाशकी टीकाका व्याख्यान जानकर भव्यजीवोंको ऐसा विचार करना चाहिये, कि मैं सहज शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव निर्विकल्प हूँ, उदासीन हूँ, निजानंद निरंजन शुद्धात्म सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप निश्चयरत्नत्रयमयी निर्विकल्पसमाधिसे उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप आनंदानुभूतिमात्र जो स्वसंवेदनज्ञान उससे गम्य हूँ, अन्य उपायोंसे गम्य नहीं हूँ । निर्विकल्प निजानंद ज्ञानकर ही मेरी प्राप्ति है, पूर्ण हूँ | राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, पाँचों इन्द्रियोंके विषय व्यापार, मन, वचन, काय, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म, ख्याति पूजा लाभ, देखे सुने और अनुभवे भोगोंकी वांछारूप निदानबंध, माया, मिथ्या ये तीन शल्य इत्यादि विभाव परिणामोंसे रहित सब प्रपंचोंसे रहित मैं हूँ । तीन लोक, तीन कालमें, मन वचन कायकर कृत कारित अनुमोदनाकर, शुद्ध निश्चयनयसे मैं आत्माराम ऐसा हूँ । तथा सभी जीव ऐसे हैं । ऐसी सदैव भावना करनी चाहिये । Jain Education International अब टीकाकारके अंतके श्लोकका अर्थ कहते हैं - युधिष्ठिर राजाको आदि लेकर पाँच भाई पांडव और श्रीरामचंद्र तथा अन्य भी विवेकी राजा हैं, उनसे अत्यन्त भक्तिकर यह जिनशासन पूजनीक है, जिसको सुर नाग भी पूजते हैं, ऐसा श्रीजिनभाषित शासन सैंकडों सुखोंकी वृद्धिको प्राप्त होवे । यह परमात्मप्रकाश ग्रन्थका व्याख्यान प्रभाकरभट्टके सम्बोधनके लिये श्रीयोगीन्द्रदेवने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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