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“जिसमें शांतरसकी मुख्यता है, शांतरसके हेतुसे जिसका समस्त उपदेश है, और जिसमें सभी शांतरसोंका शांतरसगर्भित वर्णन किया गया है, ऐसे शास्त्रोंका परिचय सत्श्रुतका परिचय है ।" ( पत्रांक ८२५ )
" जीवको सत्श्रुतका परिचय अवश्य ही कर्त्तव्य है । मल, विक्षेप और प्रमाद उसमें वारंवार अन्तराय करते हैं, क्योंकि दीर्घकालसे परिचित है; परंतु यदि निश्चय करके उन्हें अपरिचित करनेकी प्रवृत्ति की जायें तो ऐसे हो सकता है । यदि मुख्य अन्तराय हो तो वह जीवका अनिश्चय है ।" ( पत्रांक ८२६ )
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‘“जिज्ञासाबल, विचारबल, वैराग्यबल, ध्यानबल, और ज्ञानबल वर्धमान होनेके लिये आत्मार्थी जीवको तथारूप ज्ञानीपुरुष समागमकी उपासना विशेषतः करनी योग्य है । उसमें भी वर्तमान कालके जीवोंको उस बलकी दृढ छाप पड
के लिये बहुत अन्तराय देखनेमें आते हैं, जिससे तथारूप शुद्ध जिज्ञासुवृत्तिसे दीर्घकाल पर्यंत सत्समागमकी उपासना करनेकी आवश्यकता रहती है । सत्समागमके अभावमें वीतरागश्रुत- परम शांतरस प्रतिपादक वीतरागवचनोंकी अनुप्रेक्षा वारंवार कर्त्तव्य है । चित्तस्थैर्यके लिये वह परम औषध है । " ( पत्रांक ८५६ )
“इन्द्रियोंके निग्रहपूर्वक सत्समागम और सत्श्रुत उपासनीय है ।" ( पत्रांक ८९३)
“शास्त्रको जाल समझनेवाले भूल करते हैं । शास्त्र अर्थात् शास्ता पुरुषके वचन । इन वचनोंको समझनेके लिये दृष्टि सम्यक् चाहिये ।” ( उपदेशनोंध ४ )
- श्रीमद् राजचंद्र
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