Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० २, दोहा १९३कषायनिवृत्तिरूपं शुद्धात्मानुभूतिस्वभावं वैराग्यं, शुद्धात्मोपलब्धिरूपं तत्त्वविज्ञानं, वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागरूपं नैर्ग्रन्थ्यं, निश्चिन्तात्मानुभूतिरूपा वशचित्तता, वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबहिरङ्गसहकारिभूतं जितपरीषहत्वं चेति पञ्चैतान् ध्यान हेतून् ज्ञात्वा भावयित्वा च ध्यानं कर्तव्यमिति भावार्थः । तथा चोक्तम् – “वैराग्यं तस्यविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं वशचित्तता । जितपरीषहत्वं च पञ्चैते ध्यानहेतवः ।। " ।। १९२ ।। अथ २९८ परम-समाहि धरेवि मुणि जे परबंभु ण जंति । ते भव- दुक्खइँ बहुविहइँ कालु अणंतु सहति ॥ १९३ ॥ परमसमाधिं धृत्वापि मुनयः ये परब्रह्म न यान्ति । ते भवदुःखानि बहुविधानि कालं अनन्तं सहन्ते ॥ १९३ ॥ जे ये केचन मुणि मुनयः ण जंति न गच्छन्ति । कं कर्मतापन्नम् । परबंभु परमब्रह्म परब्रह्मशब्दवाच्यं निजदेहस्थं केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभावं परमात्मस्वरूपम् । किं कृत्वा पूर्वम् । परमसमाहि घरेवि वीतरागतात्त्विकचिदानन्दैकानुभूतिरूपं परमसमाधिं धृत्वा ते पूर्वोक्तशुद्धात्मभावनारहिताः पुरुषाः सर्हति सहन्ते । कानि कर्मतापभानि । भवदुक्खई वीतरागपरमाह्लादरूपात् पारमार्थिकसुखात् प्रतिपक्षभूतानि नरनारकादि भवदुःखानि । कतिसंख्योपेतानि । बहुविह शारीरमानसादिभेदेन बहुविधानि । कियन्तं कालम् । कालु अणंतु अनन्तकाल - ध्यानका मुख्य कारण वैराग्य है । जब वैराग्य हो तब तत्वज्ञान निर्मल हो, सो वैराग्य और तत्वज्ञान ये दोनों परस्परमें मित्र हैं । ये ही ध्यानके कारण हैं, और बाह्याभ्यन्तर परिग्रहके त्यागरूप निर्ग्रथपना वह ध्यानका कारण है । निश्चित आत्मानुभूति ही है स्वरूप जिसका ऐसे जो मनका वश होना, वह वीतराग निर्विकल्पसमाधिका सहकारी है, और बाईस परीषहोंका जीतना, वह भी ध्यानका कारण । ये पाँच ध्यानके कारण जानकर ध्यान करना चाहिये । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि संसार शरीरभोगोंसे विरक्तता, तत्वविज्ञान, सकल परिग्रहका त्याग, मनका वश करना, और बाईस परीषहोंका जीतना - ये पाँच आत्मध्यानके कारण हैं || १९२|| आगे परमसमाधिकी महिमा कहते हैं - [ ये मुनयः ] जो कोई मुनि [ परमसमाधिं ] परमसमाधिको [ धृत्वापि ] धारण करके भी [ परब्रह्म ] निज देहमें ठहरे हुए केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप निज आत्माको [न यांति] नहीं जानते हैं, [ते] वे शुद्धात्मभावनासे रहित पुरुष [ बहुविधानि ] अनेक प्रकारके [ भवदुःखानि ] नारकादि भवदुःख आधि व्याधिरूप [ अनंतं कालं ] अनंतकालतक [सहंते] भोगते हैं | भावार्थ - मनके दुःखको आधि कहते हैं, और तनसंबंधी दुःखोंको व्याधि कहते हैं, नाना प्रकारके दुःखोंको अज्ञानी जीव भोगता है । ये दुःख वीतराग परम आह्लादरूप जो पारमार्थिक-सुख उससे विमुख है । यह जीव अनन्तकाल तक निजस्वरूपके ज्ञान बिना चारों गतियोंमें नाना प्रकारके दुःख भोग रहा है । ऐसा व्याख्यान जानकर निज शुद्धात्मामें स्थिर होकर I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550