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परमात्मप्रकाशः
-दोहा १९५]
२९९ पर्यन्तमिति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा निजशुद्धात्मनि स्थित्वा रागद्वेषादिसमस्तविभावत्यागेन भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ॥ १९३ ॥ अथ
जामु सुहासुह-भावडा णवि सयल वि तुईति । परम-समाहि ण तामु मणि केवुलि एमु भणंति ॥ १९४ ॥ यावत् शुभाशुभभावाः नैव सकला अपि त्रुटयन्ति ।
परमसमाधिर्न तावत् मनसि केवलिन एवं भणन्ति ॥ १९४ ॥ जामु इत्यादि । जामु यावत्कालं णवि तुष्टुति नैव नश्यन्ति । के कर्तारः। सुहासुहभावडा शुभाशुभविकल्पजालरहितात् परमात्मद्रव्यादिपरीताः शुभाशुभभावाः। परिणामा कतिसंख्योपेता अपि । सयल वि समस्ता अपि तामु ण तावत्कालं न । कोऽसौ । परमसमाहि शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपः शुद्धोपयोगलक्षणः परमसमाधिः। क । मणि रागादिविकल्परहितत्वेन शुद्धचेतसि केवुलि एमु भणंति केवलिनो वीतरागसर्वज्ञा एवं कथयन्तीति भावार्थः ॥१९४॥ इति चतुर्विंशतिसूत्रपमितमहास्थलमध्ये परमसमाधिप्रतिपादकसूत्रषट्केन प्रथममन्तरस्थलं गतम् ।
तदनन्तरमहत्पदमिति भावमोक्ष इति जीवन्मोक्ष इति केवलज्ञानोत्पत्तिरित्येकोऽर्थः तस्य चतुर्विधनामाभिधेयस्याहत्पदस्य प्रतिपादनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा
सयल-वियप्पहँ तुझाहँ सिव-पय-मग्गि वसंतु।
कम्म-घउकाइ विलउ गइ अप्पा हुइ अरस्तु ।। १९५ ॥ राग द्वेषादि समस्त विभावोंका त्यागकर निज स्वरूपकी ही भावना करनी चाहिये ।।१९३॥ ___ आगे यह कहते हैं, कि जब तक इस जीवके शुभाशुभ भाव सब दूर न हों, तब तक परमसमाधि नहीं हो सकती-यावत्] जब तक [सकला अपि] समस्त [शुभाशुभभावाः] सकल विकल्प-जालसे रहित जो परमात्मा उससे विपरीत शुभाशुभ परिणाम [नैव त्रुट्यंति] दूर न हो-मिटें नहीं, [तावत्] तब तक [मनसि] रागादि विकल्प रहित शुद्ध चित्तमें [परमसमाधिः न] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप शुद्धोपयोग जिसका लक्षण है, ऐसी परमसमाधि इस जीवके नहीं हो सकती [एवं] ऐसा [केवलिनः] केवलीभगवंत [भणंति] कहते है ॥ भावार्थ-शुभाशुभ विकल्प जब मिटें, तभी परमसमाधि होवे, ऐसी जिनेश्वरदेवकी आज्ञा है ॥१९४।। इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें परमसमाधिके कथनरूप छह दोहोंका अंतरस्थल हुआ ।
आगे तीन दोहोंमें अरहंतपदका व्याख्यान करते हैं, अरहंतपद कहो या भावमोक्ष कहो, अथवा जीवन्मोक्ष कहो, या केवलज्ञानकी उत्पत्ति कहो-ये चारों अर्थ एकको ही सूचित करते हैं, अर्थात् चारों शब्दोंका अर्थ एक ही है-[कर्मचतुष्के विलयं गते] ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
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