Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 470
________________ परमात्मप्रकाशः ३०९ -दोहा २०८] व्याख्यानं करोति । तद्यथा जे भव-दुक्खहँ बीहिया पउ इच्छहि णिव्वाणु । इह परमप्प-पयासयह ते पर जोग्ग वियाणु ॥ २०७ ॥ ये भवदुःखेभ्यः भीताः पदं इच्छन्ति निर्वाणम् । इह परमात्मप्रकाशकस्य ते परं योग्या विजानीहि ॥ ३०७ ॥ ते पर त एव जोग्ग वियाणु योग्या भवन्तीति विजानीहि । कस्य इह परमप्पपयासयहं व्यवहारेणास्य परमात्मप्रकाशाभिधानग्रन्थस्य, परमार्थेन तु परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यस्य निर्दोषिपरमात्मनः। ते के। जे बीहिया ये भीताः। केषाम् । भवदुक्खहं रागादिविकल्परहितपरमाह्लादरूपशुद्धात्मभावनोत्थपारमार्थिकसुखविलक्षणानां नारकादिभवदुःखानाम् । पुनरपि किं कुर्वन्ति । जे इच्छहिं ये इच्छन्ति । किम् । पउ पदं स्थानम् । णिव्वाणु निर्वृतिगतपरमात्माधारभूतं निर्वाणशब्दवाच्यं मुक्तिस्थानमित्यभिप्रायः ॥ २०७ ॥ अथ जे परमप्पहँ भत्तियर विसय ण जे वि रमंति। ते परमप्प-पयासयह मुणिवर जोग्ग हवंति ॥ २०८ ॥ ये परमात्मनो भक्तिपराः विषयान् न येऽपि रमन्ते । ते परमात्मप्रकाशकस्य मुनिवरा योग्या भवन्ति ॥ २०८ ॥ हवंति भवन्ति जोग्ग योग्याः। के ते मुणिवर मुनिप्रधानाः । के। ते ते पूर्वोक्ताः। कस्य योग्या भवन्ति । परमप्पपयासयहं व्यवहारेण परमात्मप्रकाशसंज्ञग्रन्थस्य परमार्थेन तु परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यस्य शुद्धात्मस्वभावस्य । कथंभूता ये । जे परमप्पहं भत्तियर ये आगे परमात्मप्रकाश शब्दसे कहा गया जो प्रकाशरूप शुद्ध परमात्मा उसकी आराधनाके करनेवाले महापुरुषोंके लक्षण जाननेके लिये तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं-[ते परं] वे ही महापुरुष [अस्य परमात्मप्रकाशकस्य] इस परमात्मप्रकाश ग्रन्थके अभ्यास करनेके [योग्याः विजानीहि] योग्य जानो, [ये] जो [भवदुःखेभ्यः] चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंसे [भीताः] डर गये हैं, और [निर्वाणं पदं] मोक्षपदको [इच्छंति] चाहते हैं । भावार्थ-व्यवहारनयकर परमात्मप्रकाशनामा ग्रंथकी और निश्चयनयकर निर्दोष परमात्मतत्त्वकी भावनाके योग्य वे ही हैं, जो रागादि विकल्प रहित परम आनंदरूप शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय अविनश्वर सुखसे विपरीत जो नरकादि संसारके दु:ख उनसे डर गये हैं, जिनको चतुर्गतिके भ्रमणका डर है, और जो सिद्धपरमेष्ठीके निवास मोक्षपदको चाहते हैं ॥२०७।। आगे फिर भी उन्हीं पुरुषोंकी महिमा कहते हैं-ये] जो [परमात्मनः भक्तिपराः] परमात्माकी भक्ति करनेवाले [ये] जो मुनि [विषयान् न अपि रमते] विषयकषायोमें नहीं रमते हैं, [ते मुनिवराः] वे ही मुनीश्वर [परमात्मप्रकाशस्य योग्याः] परमात्मप्रकाशके अभ्यासके योग्य [भवंति] हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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