Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 469
________________ ३०८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २०६मात्मप्रकाशशब्दवाच्यं परमात्मतत्त्वं पावहिं प्राप्नुवन्ति ते वि तेऽपि । कम् । पयासु प्रकाशशब्दवाच्यं केवलज्ञानं तदाधारपरमात्मानं वा । कथंभूतं परमात्मप्रकाशम् । लोयालोयपयासयरु अनन्तगुणपर्यायसहितत्रिकालविषयलोकालोकप्रकाशकमिति तात्पर्यम् ॥ २०५॥ जे परमप्प-पयासयहं अणुदिणु णाउ लयंति । तुइ मोहु तडत्ति तहँ तिहयण-णाह हवंति ॥ २०६ ॥ ये परमात्मप्रकाशस्य अनुदिनं नाम गृह्णन्ति । त्रुटयति मोहः झटिति तेषां त्रिभुवननाथा भवन्ति ॥ २०६ ॥ लयंति गृहन्ति जे ये विवेकिनः णाउ नाम । कस्य । परमप्पयासयहं व्यवहारेण परमात्मप्रकाशाभिधानग्रन्थस्य निश्चयेन तु परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यस्य केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वरूपस्य परमात्मपदार्थस्य । कथम् । अणुदिणु अनवरतम् । तेषां किं फलं भवति । तुइ नश्यति । कोऽसौ । मोहु निर्मोहात्मद्रव्याद्विलक्षणो मोहः तड त्ति झटिति तहं तेषाम् । न केवलं मोहो नश्यति तिहुयणणाह हवंति तेन पूर्वोक्तेन निर्मोहशुद्धात्मतत्त्वभावनाफलेन पूर्व देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिविशेषं लब्ध्वा पश्चाजिनदीक्षां गृहीखा च केवलज्ञानमुत्पाद्य त्रिभुवननाथा भवन्तीति भावार्थः ॥२०६॥ एवं चतुर्विंशतिसूत्रममितमहास्थलमध्ये परमात्मप्रकाशभावनाफलकथनमुख्यखेन सूत्रत्रयेण पञ्चमं स्थलं गतम् । अथ परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यो योऽसौ परमात्मा तदाराधकपुरुषलक्षणज्ञापनार्थं सूत्रत्रयेण प्रकाशनेवाले [प्रकाशं] केवलज्ञान तथा उसके आधारभूत परमात्मतत्वको शीघ्र ही [प्राप्नुवंति] पा लेंगे । अर्थात् परमात्मप्रकाश नाम परमात्मतत्वका भी है, और इस ग्रन्थका भी है, सो परमात्मप्रकाश ग्रन्थके पढनेवाले दोनोंको ही पावेंगे । प्रकाश ऐसा केवलज्ञानका नाम है, उसका आधार जो शुद्ध परमात्मा अनंत गुण पर्याय सहित तीनकालका जाननेवाला लोकालोकका प्रकाशक ऐसा आत्मद्रव्य उसे तुरंत ही पावेंगे ॥२०५॥ ___ आगे फिर भी परमात्मप्रकाशके पढनेका फल कहते हैं-[ये] जो कोई भव्यजीव [परमात्मप्रकाशस्य] व्यवहारनयसे परमात्माके प्रकाश करनेवाले इस ग्रन्थका तथा निश्चयनयसे केवलज्ञानादि अनंतगुण सहित परमात्मपदार्थका [अनुदिनं] सदैव [नाम गृहंति] नाम लेते हैं, सदा उसीका स्मरण करते हैं, [तेषां] उनका [मोहः] निर्मोह आत्मद्रव्यसे विलक्षण जो मोहनामा कर्म [झटिति त्रुटयति] शीघ्र ही टूट जाता है, और वे [त्रिभुवननाथा भवंति] शुद्धात्म तत्त्वकी भावनाके फलसे पूर्व देवेन्द्र चक्रवर्त्यादिकी महान विभूति पाकर चक्रवर्तीपदको छोडकर जिनदीक्षा ग्रहण करके केवलज्ञानको उत्पन्न करके तीन भुवनके नाथ होते हैं, यह सारांश है ।।२०६।। इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें परमात्मप्रकाशकी भावनाके फलके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें पाँचवाँ अंतरस्थल कहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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