Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 472
________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा २११] ३११ करोति । तद्यथा लक्खण-छंद-विवज्जियउ एह परमप्प-पयासु । कुणइ सुहावइँ भावियउ चउ-गइ-दुक्ख-विणासु ॥ २१० ॥ लक्षणछन्दोविवर्जितः एष परमात्मप्रकाशः । करोति सुभावेन भावितः चतुर्गतिदुःखविनाशम् ॥ २१०॥ लक्खण इत्यादि । लक्खणछंदविवन्जियउ लक्षणछन्दोविवर्जितोऽयम् । अयं कः। एहु परमप्पपयासु एष परमात्मप्रकाशः। एवंगुणविशिष्टोऽयं किं करोति । कुणइ करोति । कम् । चउगइदुक्खविणासु चतुर्गतिदुःखविनाशम् । कथंभूतः सन् । भावियउ भावितः। केन । सुहावई शुद्धभावेनेति । तथाहि । यद्यप्ययं परमात्मप्रकाशग्रन्थः शास्त्रक्रमव्यवहारेण दोहकच्छन्दसा प्राकृतलक्षणेन च युक्तः, तथापि निश्चयेन परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यशुद्धात्मस्वरूपापेक्षया लक्षणछन्दोविवर्जितः । एवंभूतः सन्नयं किं करोति । शुद्धभावनया भावितः सन् शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पनरागादिविकल्परहितपरमानन्दैकलक्षणसुखविपरीतानां चतुर्गतिदुःखानां विनाशं करोतीति भावार्थः ।। २१०॥ अथ श्रीयोगीन्द्रदेव औद्धत्यं परिहरति इत्यु ण लेवउ पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुत्तु । भट्ट-पभायर-कारणई मह पुणु पुणु वि पउत्तु ।। २११ ।। आगे शास्त्रके फलके कथनकी मुख्यताकर एक दोहा और उद्धतपनेके त्यागकी मुख्यताकर दो दोहे इस तरह तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं-[एष परमात्मप्रकाशः] यह परमात्मप्रकाश [सुभावेन भावितः] शुद्ध भावोंकर भाया हुआ [चतुर्गतिदुःखविनाशं] चारों गतिके दुःखोंका विनाश [करोति] करता है । जो परमात्मप्रकाश [लक्षणछंदोविवर्जितः] यद्यपि व्यवहारनयकर प्राकृतरूप दोहा छंदोंकर सहित है, और अनेक लक्षणोंकर सहित है, तो भी निश्चयनयकर परमात्मप्रकाश जो शुद्धात्मस्वरूप वह लक्षण और छंदोंकर रहित है । भावार्थ-शुभ लक्षण और प्रबंध ये दोनों परमात्मामें नहीं हैं । परमात्मा शुभाशुभ लक्षणोंकर रहित है, और जिसके कोई प्रबंध नहीं, अनंतरूप है, उपयोगलक्षणमय परमानंद लक्षणस्वरूप है, सो भावोंसे उसको आराधो, वही चतुर्गतिके दुःखोंका नाश करनेवाला है । शुद्ध परमात्मा तो व्यवहार लक्षण और श्रुतरूप छंदोंसे रहित है, इनसे भिन्न निज लक्षणमयी है, और यह परमात्मप्रकाशनामा अध्यात्म-ग्रंथ यद्यपि दोहेके छंदरूप है, और प्राकृत लक्षणरूप है, परंतु इसमें स्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यता है, छंद अलंकारादिकी मुख्यता नहीं है ॥२१०॥ ___ आगे श्रीयोगींद्रदेव उद्धतपनेका त्याग दिखलाते हैं-[अत्र] श्रीयोगींद्रदेव कहते हैं, अहो भव्यजीवों, इस ग्रन्थमें [पुनरुक्तः] पुनरुक्तिका [दोषोऽपि] दोष भी [पंडितैः] आप पंडितजन [न ग्राह्यः] ग्रहण नहीं करें, और कवि-कलाका [गुणो] गुण भी न लें, क्योंकि [मया] मैंने [भट्टप्रभाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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