Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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परमात्मप्रकाशः
२९५
-दोहा १९०]
परम-समाहि-महा-सरहि जे बुडहि पइसेवि । अप्पा थका विमलु तह भव-मल जति बहेवि ॥ १८९ ॥ परमसमाधिमहासरसि ये मज्जन्ति प्रविश्य ।
आत्मा तिष्ठति विमलः तेषां भवमलानि यान्ति ऊवा ॥ १८९ ॥ जे बुडहिं ये केचना पुरुषा ममा भवन्ति । क । परमसमाहिमहासरहिं परमसमाधिमहासरोवरे। किं कृत्वा ममा भवन्ति । पइसेवि प्रविश्य सर्वात्मप्रदेशैरवगाय अप्पा थकाइ चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा तिष्ठति । कथंभूतः। विमलु द्रव्यकर्मनोकर्ममतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायमलरहितः तहं तेषां परमसमाधिरतपुरुषाणां भवमल जंति भवरहितात् शुद्धात्मद्रव्याद्विलक्षणानि यानि कर्माणि भवमलकारणभूतानि गच्छन्ति । किं कृखा। वहेवि शुद्धपरिणामनीरमवाहेण ऊवेति भावार्थः ॥ १८९ ॥ अथ
सयल-वियप्पहँ जो विलउ परम-समाहि भणंति। तेण सुहासुह-भावडा मुणि सयलवि मेल्लंति ।। १९०॥ सकलविकल्पानां यः विलयः (तं) परमसमाधि भणन्ति ।।
तेन शुभाशुभभावान् मुनयः सकलानपि मुश्चन्ति ॥ १९० ॥ भणंति कथयन्ति । के ते। वीतरागसर्वज्ञाः। कं भणन्ति । परमसमाहि वीतरागपरमसामायिकरूपं परमसमाधिकं जो विलउ यं विलयं विनाशम् । केषाम् । सयलवियप्पहं निर्विकल्पात्परमात्मस्वरूपात्मतिकूलानां समस्तविकल्पानां तेण तेन कारणेन मेल्लंति मुश्चन्ति । के कर्तारः । मुणि परमाराध्यध्यानरतास्तपोधनाः । कान् मुश्चन्ति । सुहासुहभावडा
घुसकर [मञ्जन्ति] मग्न होते हैं, उनके सब प्रदेश समाधिरसमें भीग जाते हैं, [आत्मा तिष्ठति] उन्हीके चिदानंद अखंड स्वभाव आत्माका ध्यान स्थिर होता है । जो कि आत्मा [विमलः] द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मसे रहित महा निर्मल है, [तेषां] जो योगी परमसमाधिमें रत है, उन्हीं पुरुषोंके [भवमलानि] शुद्धात्मद्रव्यसे विपरीत अशुद्ध भावके कारण जो कर्म हैं, वे सब [वहित्वा यांति] शुद्धात्म परिणामरूप जो जलका प्रवाह उसमें बह जाते है । भावार्थ-जहाँ जलका प्रवाह आवे, वहाँ मल कैसे रह सकता है ? कभी नहीं रहता ॥१८९॥
आगे परमसमाधिका लक्षण कहते हैं-[यः] जो [सकलविकल्पानां] निर्विकल्पपरमात्मस्वरूपसे विपरीत रागादि समस्त विकल्पोंका [विलयः] नाश होना, उसको [परमसमाधि भणंति] परमसमाधि कहते है, [तेन] इस परमसमाधिसे [मुनयः] मुनिराज [सकलानपि] सभी [शुभाशुभ-विकल्पान्] शुभ अशुभ भावोंको [मुंचंति] छोड देते हैं | भावार्थ-परम आराध्य जो आत्मस्वरूप उसके ध्यानमें लीन जो तपोधन वे शुभ अशुभ मन वचन कायके व्यापारसे रहित
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