Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 430
________________ दोहा १५७ ] परमात्मप्रकाशः अथ स्वात्मोपलम्भनिमित्तं चित्तस्थिरीकरणरूपेण परमोपदेशं पञ्चकलेन दर्शयतिविसय कसायहि मण-सलिलु णवि डहुलिज्जइ जासु । अप्पा णिम्मलु होइ लहु वढ पञ्चक्खु वि तासु ॥ १५६ ॥ विषयकषायैः मनःसलिलं नैव क्षुभ्यति यस्य । आत्मा निर्मलो भवति लघु वत्स प्रत्यक्षोऽपि तस्य ॥ १५६ ॥ विसय इत्यादि । विसयकसायहिं मणसलिलु ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मजलचराकीर्णसंसारसागरे निर्विषयकषायरूपात् शुद्धात्मतत्त्वात् प्रतिपक्षभूतैर्विषयकषायमहावातैर्मनःप्रचुरसलिलं वि डहुलिज्जइ नैव क्षुभ्यति जासु यस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य अप्पा णिम्मलु होइ लहु आत्मा रत्नविशेषोऽनादिकालरूपमहापाताले पतितः सन् रागादिमलपरिहारेण लघु शीघ्रं निर्मलो भवति । वढ वत्स । न केवलं निर्मलो भवति पचक्खु वि शुद्धात्मा परम इत्युच्यते तस्य परमस्य कला अनुभूतिः परमकला एव दृष्टिः परमकलादृष्टिः तया परमकलादृष्ट्या यावदवलोकनं सूक्ष्मनिरीक्षणं तेन प्रत्यक्षोऽपि स्वसंवेदन ग्राह्योऽपि भवति । कस्य । तासु यस्य पूर्वोक्तप्रकारेण निर्मलं मनस्तस्येति भावार्थ: ।। १५६ ॥ अथ अप्पा परहँण मेलविउ मणु मारिवि सहसति । सो वढ जोएँ किं करइ जासु ण एही सत्ति ॥ १५७ ॥ आत्मा परस्य न मेलितः मनो मारयित्वा सहसेति । स वत्स योगेन किं करोति यस्य न ईदृशी शक्तिः ॥ १५७ ॥ Jain Education International २६९ आत्माका ज्ञानस्वरूप जानकर रागादिक छोडकर निरन्तर आत्माकी भावना करनी चाहिये |१५५ | आगे आत्माकी प्राप्ति के लिये चित्तको स्थिर करना, ऐसा परम उपदेश श्रीगुरु दिखलाते हैं - [ यस्य ] जिसका [मनः सलिलं] मनरूपी जल [विषयकषायैः ] विषयकषायरूप प्रचंड पवनसे [नैव क्षुभ्यते] नहीं चलायमान होता है, [तस्य ] उसी भव्य जीवका [ आत्मा] आत्मा [वत्स] हे बच्चे, [निर्मलो भवति ] निर्मल होता है, और [ लघु ] शीघ्र ही [ प्रत्यक्षोऽपि ] प्रत्यक्ष हो जाता है ॥ भावार्थ - ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मरूपी जलचर मगर-मच्छादि जलके जीव उनसे भरा जो संसार-सागर उसमें विषयकषायरूप प्रचंड पवन जो कि शुद्धात्मतत्वसे सदा पराङ्मुख हैं, उसी प्रचंड पवनसे जिसका चित्त चलायमान नहीं हुआ, उसीका आत्मा निर्मल होता है । आत्मा रत्नके समान हैं, अनादिकालके अज्ञानरूपी पातालमें पडा है, सो रागादि मलके छोडनेसे शीघ्र ही निर्मल हो जाता है । हे बच्चे, उन भव्य जीवोंका आत्मा निर्मल होता है, और प्रत्यक्ष उनको आत्माका दर्शन होता है । परमकला जो आत्माकी अनुभूति वही हुई निश्चयदृष्टि उससे आत्मस्वरूपका अवलोकन होता है । आत्मा स्वसंवेदनज्ञान करके ही ग्रहण करने योग्य है । जिसका मन विषयसे चंचल न हो, उसीको आत्माका दर्शन होता है ॥१५६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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