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-दोहा १७९]
परमात्मप्रकाशः अथ तामेव देहात्मनोर्भेदभावनां द्रढयति
जेम सहाविं णिम्मलउ फलिहउ तेम सहाउ । भंतिए महल म मण्णि जिय मइलउ देक्खवि काउ ॥ १७७ ।। यथा स्वभावेन निर्मलः स्फटिकः तथा स्वभावः ।
भ्रान्त्या मलिनं मा मन्यस्व जीव मलिनं दृष्ट्वा कायम् ।। १७७ ॥ जेम इत्यादि । जेम सहाविं णिम्मलउ यथा स्वभावेन निर्मलो भवति । कोऽसौ । फलिहउ स्फटिकमणिः तेम तथा निर्मलो भवति । कोऽसौ कर्ता । सहाउ विशुद्धज्ञानरूपस्य परमात्मनः स्वभावः भतिए मइलु म मण्णि पूर्वोक्तमात्मस्वभावं कर्मतापन्नं भ्रान्त्या मलिनं मा मन्यस्व जिय हे जीव । किं कृता । मइलउ देक्खवि मलिनं दृष्ट्वा । कम् काउ निर्मलशुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मपदार्थाद्विलक्षणं कायमित्यभिमायः ॥ १७७ ॥ अथ पूर्वोक्तभेदभावनां रक्तादिवस्त्रदृष्टान्तेन व्यक्तीकरोति चतुष्कलेन
रत्तें वत्थे जेम बुहु देहु ण मण्णइ रत्तु ।। देहिं रत्तिं णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ रत्तु ॥ १७८ ।। जिणि वत्थि जेम बुहु देह ण मण्णइ जिण्णु । देहि जिणि णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ॥ १७९ ॥ रक्तेन वस्त्रेन यथा बुधः देहं न मन्यते रक्तम् । देहेन रक्तेन ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते रक्तम् ।। १७८ ॥ जीर्णेन वस्त्रेण यथा बुधः देहं न मन्यते जीर्णम् ।
देहेन जीर्णेन ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते जीर्णम् ॥ १७९ ॥ भित्र जानो । भावार्थ-आत्मस्वभाव महानिर्मल है, भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म ये सब जड हैं, आत्मा चिद्रूप है । अनंत ज्ञानादि गुणरूप जो चिदानंद उससे तू सकल प्रपंच भिन्न मान ॥१७६।।
आगे देह और आत्मा जुदे-जुदे हैं, यह भेद-भावना दृढ करते हैं-यथा] जैसे [स्फटिकः] स्फटिकमणि [स्वभावेन] स्वभावसे [निर्मल:] निर्मल है, [तथा] उसी तरह [स्वभावः] आत्मा ज्ञान दर्शनरूप निर्मल है । ऐसे आत्मस्वभावको [जीव] हे जीव, [कायं मलिनं] शरीरकी मलिनता [दृष्ट्वा ] देखकर [भ्रांत्या] भ्रमसे [मलिनं] मैला [मा मन्यस्व] मत मान ॥ भावार्थ-यह काय शुद्ध बुद्ध परमात्मपदार्थसे भिन्न है, काय मैली है, आत्मा निर्मल है ॥१७७।।
आगे पूर्वकथित भेदविज्ञानकी भावना रक्त पीतादि वस्त्रके दृष्टांतसे चार दोहोंमें प्रगट करते हैं-यथा] जैसे [बुधः] कोई बुद्धिमान पुरुष [रक्ते वस्त्रे] लाल वस्त्रसे [देहं रक्तं] शरीरको लाल [न मन्यते] नहीं मानता, [तथा] उसी तरह [ज्ञानी] वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानी [देहे रक्ते] शरीरके लाल होनेसे [आत्मानं] आत्माको [रक्तं न मन्यते] लाल नहीं मानता ।
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