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___ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १६२नन्दभरितावस्थे निर्विकल्पसमाधौ विलाइ पूर्वोक्तः श्वासो विलयं गच्छति नासिकाद्वारं विहाय तालुरन्ध्रण गच्छतीत्यर्थः । तुदृइ त्रुटयति नश्यति । कोऽसौ । मोहु मोहोदयेनोत्पन्नरागादिविकल्पजाला तड ति झटिति तहिं तत्र बहिर्बोधशून्ये निर्विकल्पसमाधौ मणु मनः पूर्वोक्तरागादिविकल्पाधारभूतं तन्मयं वा अत्थवणहं जाइ अस्तं विनाशं गच्छति स्वस्वभावेन तिष्ठति इति । अत्र यदायं जीवो रागादिपरभावशून्यनिर्विकल्पसमाधौ तिष्ठति तदायमुच्छ्वासरूपो वायुर्नासिकाछिद्रद्वयं वर्जयिवा स्वयमेवानीहितवृत्त्या तालुपदेशे यत् केशात् शेषाष्टमभागप्रमाणं छिद्रं तिष्ठति तेन क्षणमात्रं दशमद्वारेण तदनन्तरं क्षणमात्रं नासिकया तदनन्तरं रन्ध्रेण कृता निर्गच्छतीति । न च परकल्पितवायुधारणारूपेण श्वासनाशो ग्राह्यः। कस्मादिति चेत् वायुधारणा तावदीहापूर्विका, ईहा च मोहकार्यरूपो विकल्पः। स च मोहकारणं न भवतीति न परकल्पितवायुः । किं च । कुम्भकपूरकरेचकादिसंज्ञा वायुधारणा क्षणमात्रं भवत्येवात्र किंतु अभ्यासक्शेन मिथ्यात्व विकल्प-जाल रहित शुद्ध भावोंमें विलीन हो जाते हैं, अर्थात् तत्वस्वरूप परमानन्दकर पूर्ण निर्विकल्पसमाधिमें स्थिर चित्त हो जाता है, तब श्वासोच्छ्वासरूप पवन रुक जाता है, नासिकाके द्वारको छोडकर तालुवा रंध्ररूपी दशवें द्वारमें होकर निकले, तब मोह टूटता है, उसी समय मोहके उदयकर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प-जाल नाश हो जाते हैं, बाह्य ज्ञानसे शून्य निर्विकल्पसमाधिमें विकल्पोंका आधारभूत जो मन वह अस्त हो जाता है, अर्थात् निजस्वभावमें मनकी चंचलता नहीं रहती । जब यह जीव रागादि परभावोंसे शून्य निर्विकल्पसमाधिमें होता है, तब यह श्वासोच्छ्वास रूप पवन नासिकाके दोनों छिद्रोंको छोडकर स्वयंमेव अवांछीक वृत्तिसे तालुवाके बालकी अनीके आठवें भाग प्रमाण अति सूक्ष्म छिद्रमें (दशवे द्वारमें) होकर बारीक निकलता है, नासाके छेदको छोडकर तालुरंध्रमें (छेदमें) होकर निकलता है । और पातंजलिमतवाले वायुधारणारूप श्वासोच्छ्वास मानते हैं, वह ठीक नहीं है, क्योंकि वायुधारणा वांछापूर्वक होती है,
और वांछा है, वह मोहसे उत्पन्न विकल्परूप है, वांछाका कारण मोह है । संयमीके वायुका निरोध वांछापूर्वक नहीं होता है, स्वाभाविक ही होता है । जिनशासनमें ऐसा कहा है, कि कुंभक (पवनको खेंचना), पूरक (पवनको थामना), रेचक (पवनको निकालना) ये तीन भेद प्राणायामके हैं, इसीको वायुधारणा कहते हैं । यह क्षणमात्र होती है, परन्तु अभ्यासके वशसे घडी प्रहर दिवस आदितक भी होती है । उस वायुधारणाका फल ऐसा कहा है, कि देह आरोग्य होती है, देहके सब रोग मिट जाते हैं, शरीर हलका हो जाता है, परन्तु मुक्ति इस वायुधारणासे नहीं होती, क्योंकि वायुधारणा शरीरका धर्म है, आत्माका स्वभाव नहीं है । शुद्धोपयोगियोंके सहज ही विना यत्नके मन भी रुक जाता है, और श्वास भी स्थिर हो जाते हैं । शुभोपयोगियोंके मनके रोकनेके लिये प्राणायामका अभ्यास है, मनके अचल होनेपर कुछ प्रयोजन नहीं हैं । जो आत्मस्वरूप है, वह केवल चेतनामयी ज्ञान दर्शनस्वरूप है, सो शुद्धोपयोगी तो स्वरूपमें अतिलीन हैं, और शुभोपयोगी कुछ एक मनकी चपलतासे आनन्दघनमें अडोल अवस्थाको नहीं पाते, तब तक मनके वश करनेके
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