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योगीन्दुदेवविरचितः
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[ अ० २, दोहा १६४
शुद्धाकाशं न ग्राह्यं किंतु विषयकषायविकल्पशून्यः परमसमाधिर्ग्राह्यः, वायुशब्देन च कुम्भकरेचकपूरकादिरूपो वायुनिरोधो न ग्राह्यः किंतु स्वयमनीहितवृत्त्या निर्विकल्पसमाधिबलेन दशमद्वारसंज्ञेन ब्रह्मरन्ध्रसंज्ञेन सूक्ष्माभिधानरूपेण च तालुरन्ध्रेण योऽसौ गच्छति स एव ग्राह्यः तत्र । यदुक्तं केनापि – “ 'मणु मरइ पवणु जहिं खयहं जाइ । सव्वंगर तिहुवणु तहिं जि ठाइ । मूढा अंतरालु परियाहि । तुट्टइ मोहजालु जइ जाणहि || । अत्र पूर्वोक्तलक्षणमेव मनोमरणं ग्राह्यं पवनक्षयोऽपि पूर्वोक्तलक्षण एव त्रिभुवनप्रकाशक आत्मा तत्रैव निर्विकल्पसमाधौ तिष्ठतीत्यर्थः । अन्तरालशब्देन तु रागादिपरभावशून्यत्वं ग्राह्यं न चाकाशे ज्ञाते सति मोहजालं नश्यति न चान्यादृशं परकल्पितं ग्राह्यमित्यभिप्रायः ।। १६३ ॥
अथ-
जो आयासह मणु धरह लोयालोय - पमाणु ।
तुइ मोहु तडन्ति तसु पावइ परहँ पवाणु ॥ १६४ ॥ यः आकाशे मनो धरतिं लोकालोकप्रमाणम् ।
त्रुट्यति मोहो झटिति तस्य प्राप्नोति परस्य प्रमाणम् ॥ १६४ ॥
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जो इत्यादि । जो यो ध्याता पुरुषः आयासइ मणु धरइ यथा परद्रव्यसंबन्धरहितत्वेसमस्त विषय कषायरूप विकल्प - जालोंसे शून्य परमसमाधि लेना । और यहाँ वायु शब्दसे कुंभक पूरक रेचकादिरूप वांछापूर्वक वायुनिरोध न लेना, किन्तु स्वयमेव अवांछीक वृत्तिपर निर्विकल्पसमाधिके बलसे ब्रह्मद्वार नामा सूक्ष्म छिद्र जिसको तालुवेका रंध्र कहते हैं, उसके द्वारा अवांछीक वृत्तिसे पवन निकलता है, वह लेना । ध्यानी मुनियोंके पवन रोकनेका यत्न नहीं होता है, विना ही यत्नके सहज ही पवन रुक जाता है, और मन भी अचल हो जाता है, ऐसा समाधिका प्रभाव है । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जो मूढ है, वे तो अम्बरका अर्थ आकाशको जानते हैं, और जो ज्ञानीजन हैं, वे अम्बरका अर्थ परमसमाधिरूप निर्विकल्प जानते हैं । सो निर्विकल्प ध्यानमें मन मर जाता है, पवनका सहज ही निरोध होता है और सब अंग तीन भुवनके समान हो जाता है । यदि परमसमाधिको जाने, तो मोह टूट जावे । मनके विकल्पोंका मिटना वही मनका मरना है, और वही श्वासका रुकना है, जो कि सब द्वारोंसे रुककर दशवें द्वारमेंसे होकर निकले । तीन लोकका प्रकाशक आत्माको निर्विकल्पसमाधिमें स्थापित करता है । अंतराल शब्दका अर्थ रागादि भावोंसे शून्यदशा लेना, आकाशका अर्थ न लेना । आकाशके जाननेसे मोह - जाल नहीं मिटता, आत्मस्वरूपके जाननेसे मोह - जाल मिटता है । जो पातज्जलि आदि परसमयमें शून्यरूप समाधि कही है, वह अभिप्राय नहीं लेना, क्योंकि जब विभावोंकी शून्यता हो जावेगी तब वस्तुका ही अभाव हो जायगा ॥ १६३॥
आगे फिर भी निर्विकल्पसमाधिका कथन करते हैं - [ यः ] जो ध्यानी पुरुष [ आकाशे ] निर्विकल्पसमाधि [मनः ] मन [ धरति ] स्थिर करता है, [ तस्य ] उसीका [ मोहः ] मोह
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