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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ५३व्रतं भवतीति । कश्चिदाह । व्रतेन किं प्रयोजनमात्मभावनया मोक्षो भविष्यति । भरतेश्वरेण किं व्रतं कृतम् , घटिकाद्वयेन मोक्षं गतः इति । अथ परिहारमाह । भरतेश्वरोऽपि पूर्व जिनदीक्षाप्रस्तावे लोचानन्तरं हिंसादिनिवृत्तिरूपं महाव्रतविकल्पं कृत्वान्तर्मुहूर्ते गते सति दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धादिविकल्परहिते मनोवचनकायनिरोधलक्षणे निजशुद्धात्मध्याने स्थिखा पश्चानिर्विकल्पो जातः । परं किंतु तस्य स्तोककालखान्महाव्रतप्रसिद्धिर्नास्ति । अथेदं मतं वयमपि तथा कुर्मोऽवसानकाले । नैवं वक्तव्यम् । यद्येकस्यान्धस्य कथंचिन्निधानलाभो जातस्तर्हि किं सर्वेषां भवतीति भावार्थः। तथा चोक्तम् ---"पुव्वमभाविदजोगो मरणे आराहओ जदि वि कोई । खन्नगनिधिदिटुंतं तं खु पमाणं ण सव्वत्थ ॥" ॥ ५२ ॥
एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गप्रतिपादकमहाधिकारमध्ये परमोपशमभावव्याख्यानोपलक्षणलेन चतुर्दशसूत्रैः स्थलं समाप्तम् । अथानन्तरं निश्चयनयेन पुण्यपापे द्वे समाने इत्याधुपलक्षणवेन चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं क्रियते। तद्यथा-योऽसौ विभावस्वभावपरिणामौ निश्चयनयेन बन्धमोक्षहेतुभृतौ न जानाति स एव पुण्यपापद्वयं करोति न चान्य इति मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति
बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ । सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ ।। ५३ ॥ बन्धस्य मोक्षस्य हेतुः निजः यः नैव जानाति कश्चित् ।
स परं मोहेन करोति जीव पुण्यमपि पापमपि द्वे अपि ॥ ५३ ॥ बंधहं इत्यादि । बंधहं बन्धस्य मोक्खहं मोक्षस्य हेउ हेतुः कारणम् । कथंभूतम् । णिउ ध्यानमें तल्लीन होकर केवली हुए । जब राज छोडा, और मुनि हुए तभी केवली हुए, तब भरतेश्वरने अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया। इसलिए महाव्रतकी प्रसिद्धि नहीं हुई । इसपर कोई मूर्ख ऐसा विचार लेवे, कि जैसा उनको हुआ वैसे हमको भी होवेगा । ऐसा विचार ठीक नहीं है । यदि किसी एक अंधेको किसी तरहसे निधिका लाभ हुआ, तो क्या सभीको ऐसा हो सकता है ? सबको नहीं होता । भरत सरीखे भरत ही हुये । इसलिए अन्य भव्यजीवोंको यही योग्य है, कि तप संयमका साधन करना ही श्रेष्ठ है । ऐसा ही 'पुव्वं' इत्यादि गाथासे दूसरी जगह भी कहा है । अर्थ ऐसा है, कि जिसने पहले तो योगका अभ्यास नहीं किया, और मरणके समय जो कभी आराधक हो जावे, तो यह बात ऐसी जानना, कि जैसे किसी अंधे पुरुषको निधिका लाभ हुआ हो । ऐसी बात सब जगह प्रमाण नहीं हो सकती । कभी कहींपर होवे तो होवे ।।५२॥
इस तरह मोक्ष, मोक्षका फल और मोक्षके मार्गके कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें परम उपशांतभावके व्याख्यानकी मुख्यतासे अंतरस्थलमें चौदह दोहे पूर्ण हुए ।
आगे निश्चयनयकर पुण्य पाप दोनों ही समान हैं, ऐसा चौदह दोहोंमें कहते हैं । जो कोई स्वभावपरिणामको मोक्षका कारण और विभावपरिणामको बंधका कारण निश्चयसे ऐसा भेद नहीं जानता है, वही पुण्य पापका कर्ता होता है, अन्य नहीं, ऐसा मनमें धारणकर यह गाथा-सूत्र कहते
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