________________
२४८
योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १३२अथ शुद्धात्मद्रव्यादन्यत्सर्वमध्रुवमिति प्रकटयति
एक जि मेल्लिवि बंभु परु भुवणु वि एह असेसु। पुहविहि णिम्मिउ भंगुरउ एहउ बुज्झि विसेसु ॥ १३१ ।। एकमेव मुक्त्वा ब्रह्म परं भुवनमपि एतद् अशेषम् ।
पृथिव्यां निर्मापितं भङ्गुरं एतद् बुध्यस्व विशेषम् ॥ १३१ ॥ एकु जि इत्यादि । एफु जि एकमेव मेल्लिवि मुक्त्वा । किम् । बंभु परु परमब्रह्मशब्दवाच्यं नानावृक्षभेदभिन्नवनमिव नानाजीवजातिभेदभिन्न शुद्धसंग्रहनयेन शुद्धजीवद्रव्यं भुवणु वि भुवनमपि एहु इदं प्रत्यक्षीभूतम् । कतिसंख्योपेतम् । असेसु अशेषं समस्तमपि । कथंभूतमिदं सर्वं पुहविहिं णिम्मिउ पृथिव्यां लोके निर्मापितं भंगुरउ विनश्वरं एहउ बुज्झि विसेसु इमं विशेषं बुध्यस्व जानीहि वं हे प्रभाकरभट्ट । अयमत्र भावार्थः। विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परमब्रह्मशब्दवाच्यं शुद्धजीवतत्त्वं मुक्त्वान्यत्पश्चेन्द्रियविषयभूतं विनश्वरमिति ॥ १३१ ॥ अथ पूर्वोक्तमध्रुवलं ज्ञाखा धनयौवनयोस्तृष्णा न कर्तव्येति कथयति
जे दिवा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिव। ते कारणिं वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ॥ १३२॥ ये दृष्टाः सूर्योद्गमने ते अस्तमने न दृष्टाः ।
तेन कारणेन वत्स धर्म कुरु धने यौवने का तृष्णा ॥ १३२ ॥ जे दिट्ठा इत्यादि । जे दिहा ये केचन दृष्टाः । क । सूरुग्गमणि सूर्योदये ते अत्थनीचे दरजेका गिना जाता है, वहाँपर केवल वीतरागभाव ही है ॥१३०॥
__ आगे शुद्धात्मस्वरूपसे अन्य जो सामग्री है, वह सभी विनश्वर हैं, ऐसा व्याख्यान करते हैं-एकं परं ब्रह्म एवं] एक शुद्ध जीवद्रव्यरूप परब्रह्मको [मुक्त्वा ] छोडकर [पृथिव्यां] इस लोकमें [इदं अशेषं भुवनमपि निर्मापितं] इस समस्त लोकके पदार्थोंकी रचना है, वह सब [भंगुरं] विनाशीक है, [एतद् विशेषं] इस विशेष बातको तू [बुध्यस्व] जान ॥ भावार्थ-शुद्धसंग्रहनयकर समस्त जीव-राशि एक है । जैसे नाना प्रकारके वृक्षोंकर भरा हुआ वन एक कहा जाता है, उसी तरह नाना प्रकारके जीव जाति करके एक कहे जाते हैं । वे सब जीव अविनाशी हैं, और सब देहादिकी रचना विनाशीक दीखती है । शुभ-अशुभ कर्मकर जो देहादिक इस जगतमें रचे गये हैं वे सब विनाशीक हैं, हे प्रभाकरभट्ट, ऐसा विशेष तू जान, देहादिको अनित्य जान और जीवोंको नित्य जान । निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव परब्रह्म (शुद्ध जीवतत्व) उससे भिन्न जो पाँच इंद्रियोंका विषयवन वह क्षणभंगुर जानो ॥१३१॥
आगे पूर्वोक्त विषय-सामग्रीको अनित्य जानकर धन यौवन और विषयोंमें तृष्णा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कहते हैं-वत्स] हे शिष्य, [ये] जो कुछ पदार्थ [सूर्योद्गमने] सूर्यके उदय होने पर [दृष्टाः] देखे थे, [ते] वे [अस्तमने] सूर्यके अस्त होनेके समय [न दृष्टाः] नहीं देखे जाते, नष्ट हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org