Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 417
________________ २५६ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १४० - केचन विद्यमानविषयत्यागं कुर्वन्ति तद्भावनारतानां दानपूजादिकं च कुर्वन्ति तत्राश्चर्यं नास्ति इदानीं पुनर् “देवागमपरिहीणे कालेऽतिशयवर्जिते । केवलोत्पत्तिहीने तु हलचक्रधरोज्झिते ॥ " इति श्लोककथितलक्षणे दुष्षमकाले यत्कुर्वन्ति तदाश्चर्यमिति भावार्थः ॥ १३९ ॥ अथ मनोजये कृते सतीन्द्रियजयः कृतो भवतीति प्रकटयति पंच णायकु वसिकरहु जेण होंति वसि अण्ण । मूल विgs तरु-वरहँ अवसइँ सुक्कहि पण्ण ॥ १४० ॥ पश्चानां नायकं वशीकुरुत येन भवन्ति वशे अन्यानि । मूले विनष्टे तरुवरस्य अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ॥ १४० ॥ पंचहं इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । पंचहं पञ्चज्ञानप्रतिपक्षभूतानां पञ्चेन्द्रियाणां णायकु रागादिविकल्परहित परमात्मभावनाप्रतिकूलं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपप्रभृतिसमस्तापध्यानजनितविकल्पजालरूपं मनोनायकं हे भव्याः वसिकरहु विशिष्टभेदभावनाङ्कुशबलेन स्वाधीनं कुरुत । येन स्वाधीनेन किं भवति । जेण होंति बसि अण्ण येन वशीकृतेनान्यानीन्द्रियाणि वशीभवन्ति । दृष्टान्तमाह । मूल विणठ्ठह तरुवरहं मूले विनष्टे तरुवरस्य अवसई सुकहिं पण्ण अवश्यं नियमेन शुष्यन्ति पर्णानि इति । अयमंत्र भावार्थः । निजशुद्धात्मतत्त्वभावनार्थं येन केनचित्प्रकारेण मनोजयः कर्तव्यः तस्मिन् कृते जितेन्द्रियो कि इस पंचमकालमें देवोंका आगमन तो बन्द हो गया है, और कोई अतिशय नहीं देखा जाता । यह काल धर्मके अतिशयसे रहित है, और केवलज्ञानकी उत्पत्तिसे रहित है, तथा हलधर, चक्रवर्ती आदि शलाकापुरुषोंसे रहित हैं । ऐसे दुषमकालमें जो भव्यजीव धर्मको धारण करते हैं यति श्रावकके व्रत आचरते हैं, यह अचंभा है । पुरुष धन्य हैं, सदा प्रशंसा योग्य हैं ॥१३९॥ आगे मनके जीतनेसे इन्द्रियोंका जय होता है; जिसने मनको जीता, उसने सब इन्द्रियोंको जीत लिया, ऐसा व्याख्यान करते हैं - [ पंचानां नायकं ] पाँच इन्द्रियोंके स्वामी मनको [ वशीकुरुत ] तुम वश करो [ येन ] जिस मनके वश होनेसे [ अन्यानि वशे भवंति ] अन्य पाँच इन्द्रियाँ वशमें हो जाती हैं । जैसे कि [तरुवरस्य ] वृक्षकी [ मूले विनष्टे] जडके नाश हो जानेसे [पर्णानि ] पत्ते [ अवश्यं शुष्यंति ] निश्चयसे सूख जाते हैं । भावार्थ- पाँचवाँ ज्ञान जो केवलज्ञान उससे पराङ्मुख स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, इन पाँच इन्द्रियोंका स्वामी मन है, जो कि रागादि विकल्प रहित परमात्माकी भावनासे विमुख और देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप आर्त रौद्र खोटे ध्यानोंको आदि लेकर अनेक विकल्पजालमयी मन है । यह चंचलमनरूपी हस्ती उसको भेदविज्ञानकी भावनारूप अंकुशके बलसे वशमें करो, अपने आधीन करो । जिसके वश करनेसे सब इन्द्रियाँ वशमें हो सकती है, जैसे जडके टूट जानेसे वृक्षके पत्ते आप ही सूख जाते हैं । इसलिये निज शुद्धात्माकी भावनाके लिये जिस तिस तरह मनको जीतना चाहिए। ऐसा ही अन्य जगह भी कहा हैं, कि उस उपायसे उदास नहीं होना । जगतसे उदास होकर मन जीतनेका उपाय करना ॥ १४०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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