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-दोहा १४६ ] परमात्मप्रकाशः
२६१ देहु वि इत्यादि । देहु वि जित्थु ण अप्पणउ देहोऽपि यत्र नात्मीयः तहिं अप्पणउ किं अण्णु तत्रात्मीयाः किमन्ये पदार्था भवन्ति, किं तु नैव । एवं ज्ञावा परकारणि परस्य देहस्य बहिर्भूतस्य स्त्रीवस्त्राभरणोपकरणादिग्रहनिमित्तेन मण गुरुव तुहं सिवसंगमु अवगण्णु हे तपोधन शिवशब्दवाच्यशुद्धात्मभावनात्यागं मा कार्षीरिति । तथाहि । अमूर्तेन वीतरागस्वभावेन निजशुद्धात्मना सह व्यवहारेण क्षीरनीरवदेकीभूखा तिष्ठति योऽसौ देहः सोऽपि जीवस्वरूपं न भवति इति ज्ञाखा बहिःपदार्थ ममलं त्यक्त्वा शुद्धात्मानुभूतिलक्षणवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थिवा च सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ॥ १४५ ॥ अथ तमेवार्थ पुनरपि प्रकारान्तरेण व्यक्तीकरोति
करि सिव-संगमु एक्कु पर जहि पाविज्जइ सुक्खु । जोइय अण्णु म चिंति तुहुँ जेण ण लब्भइ मुक्खु ॥ १४६ ॥ कुरु शिवसंगम एकं परं यत्र प्राप्यते सुखम् ।
योगिन् अन्यं मा चिन्तय त्वं येन न लभ्यते मोक्षः ॥ १४६ ॥ करि इत्यादि । करि कुरु । कम् । सिवसंगमु शिवशब्दवाच्यशुद्धबुद्धकस्वभावनिजशुद्धात्मभावनासंसर्ग एकु पर तमेवैकं जहिं पाविज्जइ सुक्खु यत्र स्वशुद्धात्मसंसर्गे प्राप्यते। किम् । अक्षयानन्तसुखम् । जोइय अण्णु म चिंति तुहुं हे योगिन् स्वभावत्वादन्यचिन्तां मा कार्षीस्वं जेण ण लब्भइ येन कारणेन बहिश्चिन्तया न लभ्यते । कोऽसौ । मुक्खु शरीर भी [आत्मीयः न] अपना नहीं है, [तत्र] उसमें [अन्यत्] अन्य [आत्मीयं किं] क्या अपना हो सकता है ? [त्वं] इस कारण तू [शिवसंगमं] मोक्षका संगम [अवगण्य] छोडकर [परकारणे] पुत्र स्त्री वस्त्र आभूषण आदि उपकरणोंमें [मा मुह्य ] ममत्व मत कर ॥ भावार्थअमूर्त वीतराग भावरूप जो निज शुद्धात्मा उससे व्यवहारनयकर दूध पानीकी तरह यह देह एकमेक हो रही है, ऐसी देह, जीवका स्वरूप नहीं है, तो पुत्र कलत्रादि धन-धान्यादि अपने किस तरह हो सकेंगे? ऐसा जानकर बाह्य पदार्थों में ममता छोडकर शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप जो वीतराग निर्विकल्पसमाधि उसमें ठहरकर सब प्रकारसे शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिए ॥१४५॥ ___ आगे इसी अर्थको फिर भी दूसरी तरह प्रगट करते हैं-योगिन्] हे योगी हंस, [त्वं] तू [एकं शिवसंगमं] एक निज शुद्धात्माकी ही भावना [परं] केवल [कुरु] कर, [यत्र] जिसमें कि [सुखं प्राप्यते] अतीन्द्रिय सुख पावे, [अन्यं मा] अन्य कुछ भी मत [चिंतय] चितवन कर, [येन] जिससे कि [मोक्षः न लभ्यते] मोक्ष न मिले ॥ भावार्थ-हे जीव, तू शुद्ध बुद्ध अखंड स्वभाव निज शुद्धात्माका चिन्तवन कर, यदि तू शिवसंग करेगा तो अतीन्द्रिय सुख पावेगा । जो अनन्त सुखको प्राप्त हुए वे केवल आत्मज्ञानसे ही प्राप्त हुए, दूसरा कोई उपाय नहीं है । इसलिए हे योगी, तू अन्य कुछ भी चिन्तवन मत कर, परके चिंतवनसे अव्याबाध अनन्त सुखरूप मोक्षको नहीं पावेगा । इसलिये निजस्वरूपका ही चिन्तन कर ।।१४६॥
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