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योगीन्दुदेवविरचितः
घर - वासउ मा जाणि जिय दुक्किय- वासउ एहु | पासु कयंते मंडियउ अविचलु णिस्संदेहु ॥ १४४ ॥ गृहवासं मा जानीहि जीव दुष्कृतवास एषः ।
पाशः कृतान्तेन मण्डितः अविचल : निस्सन्देहम् ॥ १४४ ॥
[अ० २, दोहा १४५
घरवासउ इत्यादि । घरवासउ गृहवासम् अत्र गृहशब्देन वासमुख्यभूता स्त्री ग्राह्या । तथा चोक्तम्–“न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते " । मा जाणि जिय हे जीव त्वमात्महितं मा जानीहि । कथंभूतो गृहवासः । दुक्कियवासउ एहु समस्तदुष्कृतानां पापानां वासः स्थानमेषः, पासु कयंतें मंडियउ अज्ञानिजीवबन्धनार्थं पाशो मण्डितः । केन । कृतान्तनाम्ना कर्मणा । कथंभूतः । अविचलु शुद्धात्मतत्त्वभावनाप्रतिपक्षभूतेन मोहबन्धनेनाबद्धवादविचलः णिस्संदेह संदेहो न कर्तव्य इति । अयमत्र भावार्थः । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मपदार्थभावनाप्रतिपक्षभूतैः कषायेन्द्रियैः व्याकुलीक्रियते मनः, मनः शुद्धयभावे गृहस्थानां तपोधनवत् शुद्धात्मभावना कर्तुं नायातीति । तथा चोक्तम् — “ कषायैरिन्द्रियैर्दुष्टैर्व्याकुलीक्रियते मनः । यतः कर्तुं न शक्येत भावना गृहमेधिभिः ॥ " ॥ १४४ ॥
अथ गृहममत्वत्यागानन्तरं देहममत्वत्यागं दर्शयति—
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देहु वि जित्थु ण अप्पणउ तहि अप्पणउ किं अष्णु । पर-कारणि मण गुरुव तुहुँ सिव-संगमु अवगण्णु ॥ १४५ ॥ देहोऽपि यत्र नात्मीयः तत्रात्मीयं किमन्यत् ।
परकारणे मा मुह्य (?) त्वं शिवसंगमं अवगण्य ॥ १४५ ॥
जीव, तू इसको [गृहवासं ] घर वास [ मा जानीहि ] मत जान, [ एषः ] यह [ दुष्कृतवासः ] पापका निवासस्थान है, [ कृतांतेन ] यमराजने (कालने) अज्ञानी जीवोंके बाँधनेके लिये यह [ पाशः मंडितः ] अनेक फाँसोंसे मंडित [ अविचल : ] बहुत मजबूत बंदीखाना बनाया है, इसमें [निस्संदेहं ] सन्देह नहीं है । भावार्थ - यहाँ घर शब्दसे मुख्यरूप स्त्री जानना, स्त्री ही घरका मूल है, स्त्री बिना गृहवास नहीं कहलाता । ऐसा दूसरे शास्त्रोंमें भी कहा है, कि घरको घर मत जानों, स्त्री ही घर है, जिन पुरुषोंने स्त्रीका त्याग किया, उन्होंने घरका त्याग किया । यह घर मोहके बंधनसे अति दृढ बँधा हुआ है, इसमें संदेह नहीं है । यहाँ तात्पर्य ऐसा है, कि शुद्धात्मज्ञान दर्शन शुद्ध भावरूप जो परमात्मपदार्थ उसकी भावनासे विमुख जो विषय कषाय है, उनसे यह मन व्याकुल होता है । इसलिये मनकी शुद्धिके बिना गृहस्थको यतिकी तरह शुद्धात्माका ध्यान नहीं होता । इस कारण घरका त्याग करना योग्य है, घरके विना त्यागे मन शुद्ध नहीं होता । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि कषायोंसे और इन दुष्ट इन्द्रियोंसे मन व्याकुल होता है, इसलिये गृहस्थ लोग आत्मभावना कर नहीं सकते || १४४॥
आगे घरकी ममता छुड़ाकर शरीरका ममत्व छुडाते है - [ यत्र ] जिस संसार में [ देहोऽपि ]
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