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- दोहा १४१ ]
परमात्मप्रकाशः
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भवति । तथा चोक्तम् – “ येनोपायेन शक्येत सन्नियन्तुं चलं मनः । स एवोपासनीयोऽत्र न चैत्र विरमेत्ततः ।। " ।। १४० ॥
अथ हे जीव विषयासक्तः सन् कियन्तं कालं गमिष्यसीति संबोधयति - बिसयासत्तल जीव तुहुँ कित्तिउ कालु गमीसि ।
सिव- संग करि णिचल अवस मुक्खु लहीसि ॥ १४१ ॥ विषयासक्तः जीव त्वं कियन्तं कालं गमिष्यसि ।
शिवसंगम कुरु निश्चलं अवश्यं मोक्ष लभसे ॥ १४१ ॥
विसय इत्यादि । विसयासत्तउ शुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमानन्दस्य न्दिपारमार्थिकसुखानुभवरहितत्वेन विषयासक्तो भूला जीव हे अज्ञानिजीव तुहुं तं कित्तिउ कालु गमीसि कियन्तं कालं गमिष्यसि बहिर्मुखभावेन नयसि । तर्हि किं करोमीत्यस्य प्रत्युत्तरमाह । सिवसंगमु करि शिवशब्दवाच्यो योऽसौ केवलज्ञानदर्शनस्वभावस्वकीयशुद्धात्मा तत्र संगमं संसर्ग कुरु । कथंभूतम् । णिचलउ घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि मेरुवनिश्चलं तेन निश्चलात्मध्यानेन अवसई मुक्खु लहीसि नियमेनानन्तज्ञानादिगुणास्पदं मोक्षं लभसे त्वमिति तात्पर्यम् ॥१४९॥ अथ शिवशब्दवाच्यस्वशुद्धात्मसंसर्गत्यागं मा कार्षीस्त्वमिति पुनरपि संबोधयति —
आगे जीवको उपदेश देते हैं, कि हे जीव, तू विषयोंमें लीन होकर अनंतकाल तक भटका, और अब भी विषयासक्त है, सो विषयासक्त हुआ कितने काल तक भटकेगा ? अब तो मोक्षका साधन कर, ऐसा संबोधन करते हैं - [ जीव] हे अज्ञानी जीव, [त्वं ] तू [विषयासक्तः ] विषयोंमें आसक्त होकर [ कियंतं कालं ] कितना काल [ गमिष्यसि ] बितायेगा ? [शिवसंगमं] अब तो शुद्धात्माका अनुभव [निश्चलं ] निश्चलरूप [कुरु ] कर, जिससे कि [ अवश्यं ] अवश्य [ मोक्षं ] मोक्षको [ लभसे ] पावेगा ॥ भावार्थ - हे अज्ञानी जीव, तू शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परम आनन्दरूप अविनाशी सुखके अनुभवसे रहित हुआ विषयोंमें लीन होकर कितने काल तक भटकेगा ? पहले तो अनंतकाल भ्रमा, अब भी भ्रमणसे नहीं थका तो बहिर्मुख परिणाम करके कब तक भटकेगा ? अब तो केवलज्ञान दर्शनरूप अपने शुद्धात्माका अनुभव कर, निज भावोंका संबंध कर । घोर उपसर्ग और बाईस परिषहकी उत्पत्तिमें भी सुमेरुके समान निश्चल जो आत्मध्यान उसको धारण कर, उसके प्रभावसे निःसंशय मोक्ष पावेगा । जो मोक्ष-पदार्थ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, और अनन्तवीर्यादि अनन्तगुणोंका ठिकाना है, सो विषयके त्यागसे अवश्य मोक्ष पावेगा ॥ १४१ ॥
आगे निजस्वरूपका संसर्ग तू मत छोड, निजस्वरूप ही उपादेय है, ऐसा ही बारबार उपदेश करते हैं -[ गुरुवर] हे तपोधन, [शिवसंगमं] आत्मकल्याणको [ परिहृत्य ] छोडकर [ क्वापि ] तू कहीं भी [ मा गच्छ ] मत जा । [ ये] जो कोई अज्ञानी जीव [ शिवसंगमे ] निज भावमें [नैव लीनाः] नहीं
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