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-दोहा ५६] परमात्मप्रकाशः
१७७ परस्परभिन्ने भवतस्तथैवाशुद्धनिश्चयेन भावपुण्यपापे भिन्ने भवतस्तथापि शुद्धनिश्चयनयेन पुण्यपापरहितशुद्धात्मनः सकाशाद्विलक्षणे सुवर्णलोहनिगलवद्धन्धं प्रति समाने एव भवतः । एवं नयविभागेन योऽसौ पुण्यपापद्वयं समानं न मन्यते स निर्मोहशुद्धात्मनो विपरीतेन मोहेन मोहितः सन् संसारे परिभ्रमति इति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृता तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह । यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं त्रिगुप्तिगुप्तवीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव । यदि पुनस्तथाविधामवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दृषणमेवेति तात्पर्यम् ।। ५५॥ ___ अथ येन पापफलेन जीवो दुःखं प्राप्य दुःखविनाशार्थ धर्माभिमुखो भवति तत्पापमपि समीचीनमिति दर्शयति
वर जिय पावइँ सुंदरइँ णाणिय ताइँ भणंति । जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइँ जाइँ कुणंति ॥ ५६ ॥ वरं जीव पापानि सुन्दराणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति ।
जीवानां दुःखानि जनित्वा लघु शिवमति यानि कुर्वन्ति ॥ ५६ ॥ वर जिय इत्यादि । वर जिय वरं किंतु हे जीव पावई सुंदरई पापानि सुन्दराणि समीचीनानि भणंति कथयन्ति । के । णाणिय ज्ञानिनः तत्त्ववेदिनः । कानि । ताई तानि जैसे सोनेकी बेडी और लोहेकी बेडी ये दोनों ही बंधके कारण हैं-इससे समान हैं । इस तरह नयविभागसे जो पुण्य पापको समान नहीं मानता, वह निर्मोही शुद्धात्मासे विपरीत जो मोहकर्म उससे मोहित हुआ संसारमें भ्रमण करता है । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट बोला, यदि ऐसा ही है, तो कितने ही परमतवादी पुण्य पापको समान मानकर स्वच्छंदी हुए रहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? तब योगीन्द्रदेवने कहा-जब शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप तीन गुप्तिसे गुप्त वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको पाकर ध्यानमें मग्न हुए ज्ञानी पुण्य पापको समान जानते हैं, तब तो जानना योग्य है । परन्तु जो मूढ परमसमाधिको न पाकर भी गृहस्थ-अवस्थामें दान पूजा आदि शुभ क्रियाओंको छोड़ देते हैं, और मुनि पदमें छह आवश्यक कर्मोंको छोडते हैं, वे दोनों बातोंसे भ्रष्ट हैं । न तो यति हैं, न श्रावक हैं । वे निंदा योग्य ही हैं । तब उनको दोष ही है, ऐसा जानना ।५५।।
आगे जिस पापके फलसे यह जीव नरकादिमें दुःख पाकर उस दुःखके दूर करनेके लिये धर्मके सम्मुख होता है, उस पापका फल भी श्रेष्ठ (प्रशंसा योग्य) है, ऐसा दिखलाते हैं-[जीव] हे जीव, [यानि] जो पापके उदय [जीवानां] जीवोंको [दुःखानि जनित्वा] दुःख देकर [लघु] शीघ्र ही [शिवमतिं] मोक्षके जाने योग्य उपायोंमें बुद्धि [कुर्वन्ति] कर देवे, तो [तानि पापानि] वे पाप भी [वरं सुंदराणि] बहुत अच्छे हैं, ऐसा [ज्ञानिनः] ज्ञानी [भणंति] कहते हैं । भावार्थ-कोई
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