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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ८३वेत्ति । यद्यपि व्यवहारेण परमात्मप्रतिपादकशास्त्रेण ज्ञायते तथापि निश्चयेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन परिच्छिद्यते । यद्यप्यनशनादिद्वादशविधतपश्चरणेन बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन साध्यते तथापि निश्चयेन निर्विकल्पशुद्धात्मविश्रान्तिलक्षणवीतरागचारित्रसाध्यो योऽसौ परमार्थशब्दवाच्यो निजशुद्धात्मा तत्र निरन्तरानुष्ठानाभावात् ताव ण मुंचइ तावन्तं कालं न मुच्यते । केन । कर्मणा जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ यावन्तं कालं नैवैनं पूर्वोक्तलक्षणं परमार्थ मनुते जानाति श्रद्धत्ते सम्यगनुभवतीति । इदमत्र तात्पर्यम् । यथा प्रदीपेन विवक्षितं वस्तु निरीक्ष्य गृहीखा च प्रदीपस्त्यज्यते तथा शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादकशास्त्रेण शुद्धात्मतत्त्वं ज्ञाखा गृहीखा च मदीपस्थानीयः शास्त्रविकल्पस्त्यज्यत इति ॥ ८२ ॥
अथ योऽसौ शास्त्रं पठन्नपि विकल्पं न मुञ्चति निश्चयेन देहस्थं शुद्धात्मानं न मन्यते स जडो भवतीति प्रतिपादयति
सत्थु पढंतु वि होइ जड जो ण हणेइ वियप्पु । देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ॥ ८३ ॥ शास्त्रं पठन्नपि भवति जडः यः न हन्ति विकल्पम् ।
देहे वसन्तमपि निर्मलं नैव मन्यते परमात्मानम् ।। ८३ ॥ सत्थु इत्यादि । सत्थु पढंतु वि शास्त्रं पठन्नपि होइ जडु स जडो भवति यः किं करोति । जानता है, [यावत्] और जब तक [एवं] पूर्व कहे हुए [परमार्थ] परमात्माको [नैव मनुते] नहीं जानता, या अच्छी तरह अनुभव नहीं करता है, [तावत्] तब तक [न मुच्यते] नहीं छूटता । भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे आत्मा अध्यात्मशास्त्रोंसे जाना जाता है, तो भी निश्चयनयसे वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे ही जानने योग्य है, यद्यपि बाह्य सहकारीकारण अनशनादि बारह प्रकारके तपसे साधा जाता है, तो भी निश्चयनयसे निर्विकल्पवीतरागचारित्रसे ही आत्माकी सिद्धि है । जिस वीतरागचारित्रका शुद्धात्मामें विश्राम होना ही लक्षण है । सो वीतरागचारित्रके आगमज्ञानसे तथा बाह्य तपसे आत्मज्ञानकी सिद्धि नहीं है । जब तक निज शुद्धात्मतत्त्वके स्वरूपका आचरण नहीं है, तब तक कर्मोंसे नहीं छूट सकता । यह निःसंदेह जानना कि जब तक परमतत्त्वको न जाने, न श्रद्धा करे, न अनुभवे, तब तक कर्मबंधसे नहीं छूटता । इससे यह निश्चय हुआ, कि कर्मबंधसे छूटनेका कारण एक आत्मज्ञान ही है, और शास्त्रका ज्ञान भी आत्मज्ञानके लिए ही किया जाता है, जैसे दीपकसे वस्तुको देखकर वस्तुको उठा लेते हैं, और दीपकको छोड देते हैं, उसी तरह शुद्धात्मतत्त्वके उपदेश करनेवाले जो अध्यात्मशास्त्र उनसे शुद्धात्मतत्त्वको जानकर उस शुद्धात्मतत्त्वका अनुभव करना चाहिए, और शास्त्रका विकल्प छोडना चाहिये । शास्त्र तो दीपकके समान हैं, तथा आत्मवस्तु रत्नके समान है ॥८२।। ___आगे जो शास्त्रको पढ़ करके भी विकल्पको नहीं छोडता, और निश्चयसे शुद्धात्माको नहीं मानता जो कि शुद्धात्मदेव देहरूपी देवालयमें मौजूद है, उसे न ध्यावता है, वह मूर्ख है, ऐसा कहते
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