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-दोहा ८८] परमात्मप्रकाशः
२०७ सुखास्वादरूपः स्वशुद्धात्मैव उपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं, तस्यैव परमात्मनः समस्तमिथ्यावरागाद्यास्रवेभ्यः पृथग्रूपेण परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तत्रैव रागादिपरिहाररूपेण निश्चलचित्तवृत्तिः सम्यक्चारित्रम् इत्येवं निश्चयरत्नत्रयस्वरूपं तत्रयात्मकमात्मानमरोचमानस्तथैवाजाननभावयंश्च मूढात्मा । किं करोति । समस्तं जगद्धर्मव्याजेन ग्रहीतुमिच्छति, पूर्वोक्तज्ञानी तु त्यक्तुमिच्छतीति भावार्थः ॥ ८७ ।। ____ अथ शिष्यकरणाधनुष्ठानेन पुस्तकाधुपकरणेनाज्ञानी तुष्यति, ज्ञानी पुनर्बन्धहेतुं जानन सन् लज्जां करोतीति प्रकटयति
चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिँ तृसइ मूदु णिभंतु । एयहि लजह णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु ॥ ८८ ॥ शिष्यार्जिकापुस्तकैः तुष्यति मूढो निर्भ्रान्तः ।
एतैः लज्जते ज्ञानी बन्धस्य हेतुं जानन् ।। ८८ ॥ शिष्यार्जिकादीक्षादानेन पुस्तकप्रभृत्युपकरणैश्च तुष्यति संतोषं करोति । कोऽसौ । मूढः । कयंभूतः । निर्धान्तः एतैर्बहिर्द्रव्यैर्लजां करोति । कोऽसौ । ज्ञानी । किं कुर्वन्नपि । पुण्यबन्धहेतुं जानन्नपि । तथा च । पूर्वोक्तसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं निजशुद्धात्मस्वभावमश्रधानो विशिष्टभेदज्ञानेनाजानंश्च तथैव वीतरागचारित्रेणाभावयंश्च मूढात्मा । किं करोति । पुण्यवन्धकारणमपि जिनदीक्षादानादिशुभानुष्ठानं पुस्तकाद्युपकरणं वा मुक्तिकारणं मन्यते । ज्ञानी तु तपश्चरणादि करता है, भोगोंका अभिलाषी नहीं है ॥ भावार्थ-वीतराग सहजानंद अखंडसुखके आस्वादरूप जो शुद्धात्मा वही आराधने योग्य है, ऐसी जो रुचि वह सम्यग्दर्शन, समस्त मिथ्यात्व रागादि आस्रवसे भिन्नरूप उसी परमात्माका जो ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान और उसीमें निश्चल चित्तकी वृत्ति वह सम्यक्चारित्र, यह निश्चयरत्नत्रयरूप जो शुद्धात्माकी रुचि जिसके नहीं, ऐसा मूढजन आत्माको नहीं जानता हुआ, और नहीं अनुभवता हुआ जगतके समस्त भोगोंको धर्मके बहानेसे लेना चाहता है, तथा ज्ञानीजन समस्त भोगोंसे उदास है, जो विद्यमान भोग थे, वे सब छोड दिये और आगामी वांछा नहीं है ऐसा जानना ॥८७।।
आगे शिष्योंका करना, पुस्तकादिका संग्रह करना, इन बातोंसे अज्ञानी प्रसन्न होता है, और ज्ञानीजन इनको बंधके कारण जानता हुआ इनसे रागभाव नहीं करता, इनके संग्रहमें लज्जावान होता है-[मूढः] अज्ञानीजन [शिष्यार्जिकापुस्तकैः] चेला चेली पुस्तकादिकसे [तुष्यति] हर्षित होता है, [निन्तः ] इसमें कुछ संदेह नहीं है, [ज्ञानी] और ज्ञानीजन [एतः] इन बाह्य पदार्थोंसे [लज्जते] शरमाता है, क्योंकि इन सबोंको [बंधस्य हेतुं] बंधका कारण [जानन्] जानता है ।। भावार्थसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्ररूप जो निज शुद्धात्मा उसको न श्रद्धान करता, न जानता और न अनुभव करता जो मूढात्मा वह पुण्यबंधके कारण जिनदीक्षा दानादि शुभ आचरण और पुस्तकादि उपकरण उनको मुक्तिके कारण मानता है, और ज्ञानीजन इनको साक्षात् पुण्यबंधके
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