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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अ० २, दोहा १००बहुवचनेन हे योगिनः । किं कुर्वन्ति । विमलु मुणंति विमलं संशयादिरहितं शुद्धात्मस्वरूपं मन्यन्ते जानन्तीति । तद्यथा । यद्यपि जीवराश्यपेक्षया तेषामेकत्वं भण्यते तथापि व्यक्त्यपेक्षया प्रदेशभेदेन भिन्नत्वं नगरस्य गृहादिपुरुषादिभेदवत् । कश्चिदाह । यथैकोऽपि चन्द्रमा बहुजलघटेषु भिन्नभिन्नरूपेण दृश्यते तथैकोऽपि जीवो बहुशरीरेषु भिन्नभिन्नरूपेण दृश्यत इति । परिहारमाह । बहुषु जलघटेषु चन्द्रकिरणोपाधिवशेन जलपुद्गला एव चन्द्राकारेण परिणता न चाकाशस्थ - is चन्द्रमाः । अत्र दृष्टान्तमाह । यथा देवदत्तमुखोपाधिवशेन नानादर्पणानां पुद्गला एव नानामुखाकारेण परिणमन्ति न च देवदत्तमुखं नानारूपेण परिणमति । यदि परिणमति तदा दर्पणस्थं मुखप्रतिबिम्बं चेतनत्वं प्राप्नोति, न च तथा, तथैकचन्द्रमा अपि नानारूपेण न परिणमतीति । किं च न चैको ब्रह्मनामा कोऽपि दृश्यते प्रत्यक्षेण यश्चन्द्रवन्नानारूपेण भविष्यति इत्यभिप्रायः ॥९९॥ अथ सर्वजीवविषये समदर्शित्वं मुक्तिकारणमिति प्रकटयति-—
राय - दोस बे परिहरिवि जे सम जीव णियंति ।
ते समभावि परिट्टिया लहु णिव्वाणु लहंति ॥ १०० ॥
हैं । जैसे वृक्ष जातिकर वृक्षोंका एकपना हैं, तो भी सब वृक्ष जुदे जुदे हैं, और पहाड - जाति से सब पहाड़ोंका एकत्व है, तो भी सब जुदे जुदे हैं, तथा रत्न-जातिसे रत्नोंका एकत्व हैं, परन्तु सब रत्न पृथक् पृथक् हैं, घट-जातिकी अपेक्षा सब घटोंका एकपना है, परंतु सब जुदे जुदे हैं, और पुरुष - जातिकर सबकी एकता है, परंतु सब अलग अलग हैं । उसी प्रकार जीव-जातिकी अपेक्षासे सब जीवोंका एकपना है, तो भी प्रदेशोंके भेदसे सब ही जीव जुदे जुदे हैं । इस पर कोई परवादी प्रश्न करता है, कि जैसे एक ही चन्द्रमा जलके भरे बहुत घडोंमें जुदा जुदा भासता है, उसी प्रकार एक ही जीव बहुत शरीरोंमें भिन्न भिन्न भास रहा है । उसका श्रीगुरु समाधान करते हैं - जो बहुत जलके घडोंमें चन्द्रमाकी किरणोंकी उपाधिसे जल- जातिके पुद्गल ही चन्द्रमाके आकारमें परिणत हो गये हैं, लेकिन आकाशमें स्थित चन्द्रमा तो एक ही है, चन्द्रमा तो बहुत स्वरूप नहीं हो गया । उनका दृष्टान्त देते हैं । जैसे कोई देवदत्तनामा पुरुष उसके मुखकी उपाधि (निमित्त ) से अनेक प्रकारके दर्पणोंसे शोभायमान काँचका महल उसमें वे काँचरूप पुद्गल ही अनेक मुखके आकारमें परिणत हुए हैं, कुछ देवदत्तका मुख अनेकरूप नहीं परिणत हुआ है, मुख एक ही है । यदि कदाचित् देवदत्तका मुख अनेकरूप परिणमन करे, तो दर्पणमें तिष्ठते हुए मुखोंके प्रतिबिम्ब चेतन हो जावें । परंतु चेतन नहीं होते, जड ही रहते हैं, उसी प्रकार एक चन्द्रमा भी अनेकरूप नहीं परिणमता । वे जलरूप पुद्गल ही चन्द्रमाके आकार में परिणत हो जाते हैं । इसलिए ऐसा निश्चय समझना, कि जो कोई ऐसा कहते हैं, कि एक ही ब्रह्मके नानारूप दीखते हैं । यह कहना ठीक नहीं है । जीव जुदे जुदे हैं ॥९९॥
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आगे ऐसा कहते हैं, कि सब ही जीव द्रव्यसे तो जुदे जुदे हैं, परंतु जातिसे एक हैं, और गुणों कर समान हैं, ऐसी धारणा करना मुक्तिका कारण है - [ ये ] जो [ रागद्वेषौ ] राग और द्वेषको
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