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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ९८शुद्धनिश्चयेन तदावरणाभावात् पूर्वोक्तलक्षणकेवलज्ञानेन निवृत्तखात्सर्वेऽपि जीवा ज्ञानमयाः जम्मणमरणचिमुक व्यवहारनयेन यद्यपि जन्ममरणसहितास्तथापि निश्चयेन वीतरागनिजानन्दैकरूपमुखामृतमयखादनाधनिधनखाच्च शुद्धात्मस्वरूपाद्विलक्षणस्य जन्ममरणनिर्वर्तकस्य कर्मण उदयाभावाज्जन्ममरणविमुक्ताः । जीवपएसहिं सयल सम यद्यपि संसारावस्थायां व्यवहारेणोपसंहारविस्तारयुक्तखादेहमात्रा मुक्तावस्थायां तु किंचिदूनचरमशरीरप्रमाणास्तथापि निश्चयनयेन लोकाकाशममितासंख्येयप्रदेशखहानिवृद्धयभावात् स्वकीयस्वकीयजीवप्रदेशैः सर्वे समानाः। सयल वि सगुणहिं एक यद्यपि व्यवहारेणाव्याबाधानन्तसुखादिगुणाः संसारावस्थायां कर्मशंपितास्तिष्ठन्ति, तथापि निश्चयेन कर्माभावात् सर्वेऽपि स्वगुणैरेकप्रमाणा इति । अत्र यदुक्तं शुदात्मनः स्वरूपं तदेवोपादेयमिति तात्पर्यम् ॥ ९७ ॥ अथ जीवानां ज्ञानदर्शनलक्षणं प्रतिपादयति
जीवह लक्खणु जिणवरहि भासिउ दसण-णाणु । तेण ण किन्नइ भेउ तहँ जइ मणि जाउ विहाणु ॥ ९८ ॥ जीवानां लक्षण जिनवरैः भाषितं दर्शनं ज्ञानम् ।
तेन न क्रियते भेदः तेषां यदि मनसि जातो विभातः ॥ ९८ ॥ जीवई इत्यादि । जीवह लक्खणु जिणवरहिं भासिउ दसणणाणु यद्यपि व्यवहारेण संसारावस्थायां मत्यादिज्ञानं चक्षुरादिदर्शनं जीवानां लक्षणं भवति तथापि निश्चयेन केवलदर्शनं व्यवहारनयकर सब संसारी जीव जन्म मरण सहित हैं, तो भी निश्चयनयकर वीतराग निजानंदरूप अतीन्द्रिय सुखमयी हैं, जिसकी आदि भी नहीं और अंत भी नहीं ऐसे हैं, शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत जन्म मरणके उत्पन्न करनेवाले जो कर्म उनके उदयके अभावसे जन्म मरण रहित हैं । यद्यपि संसारअवस्थामें व्यवहारनयकर प्रदेशोंका संकोच विस्तारको धारण करते हुए देहप्रमाण हैं, और मुक्त अवस्थामें चरम (अंतिम) शरीरसे कुछ कम देहप्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं, हानि वृद्धि न होनेसे अपने प्रदेशोंकर सब समान हैं, और यद्यपि व्यवहारनयसे संसार-अवस्थामें इन जीवोंके अव्याबाध अनंत सुखादिगुण कर्मोंसे ढंके हुए हैं, तो भी निश्चयनयकर कर्मके अभावसे सभी जीव गुणोंकर समान हैं । ऐसा जो शुद्ध आत्माका स्वरूप है, वही ध्यान करने योग्य है ॥९७।। __ आगे जीवोंका ज्ञान-दर्शन लक्षण कहते हैं-[जीवानां लक्षणं] जीवोंका लक्षण [जिनवरैः] जिनेन्द्रदेवने [दर्शनं ज्ञानं] दर्शन और ज्ञान [भाषितं] कहा है, [तेन] इसलिए [तेषां] उन जीवोंमें [भेदः] भेद [न क्रियते] मत कर, [यदि] अगर [मनसि] तेरे मनमें [विभातः जातः] ज्ञानरूपी सूर्यका उदय हो गया है, अर्थात् हे शिष्य, तू सबको समान जान ॥ भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे संसारीअवस्थामें मत्यादि ज्ञान, और चक्षुरादि दर्शन जीवके लक्षण कहे हैं, तो भी निश्चयनयकर
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