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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अ० २, दोहा १०२ - जाणइ जो जि लक्षणं जानाति य एव देहविभेएं भेउ तहं देहविभेदेन भेदं तेषां जीवानां, देहोद्भवविषयसुखरसास्वादविलक्षणशुद्धात्मभावनारहितेन जीवेन यान्युपार्जितानि कर्माणि तदुदयेनोत्पन्नेन देहभेदेन जीवानां भेदं णाणि कि मण्णइ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी किं मन्यते । नैव । कम् । सो जि तमेव पूर्वोक्तं देहभेदमिति । अत्र ये केचन ब्रह्माद्वैतवादिनो नानाजीवान मन्यन्ते तन्मतेन विवक्षितैकजीवस्य जीवितमरणसुखदुःखादिके जाते सर्वजीवानां तस्मिन्नेव क्षणे जीवितमरणसुखदुःखादिकं प्रामोति । कस्मादिति चेत् । एकजीवत्वादिति । न च तथा दृश्यते इति भावार्थः ॥ १०१ ॥
अथ जीवानां निश्चयनयेन योऽसौ देहभेदेन भेदं करोति स जीवानां दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं न जानातीत्यभिप्रायं मनसि धृखा सूत्रमिदं कथयति
देह-विभेयइँ जो कुणइ जीवहँ भेउ विचिन्तु ।
सो वि लक्खणु मुणइ तहँ दंसणु णाणु चरिन्तु ।। १०२ ।। देहविभेदेन यः करोति जीवानां भेदं विचित्रम् |
स नैव लक्षणं मनुते तेषां दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ॥ १०२ ॥
देह इत्यादि । देहविभे
देहममत्रमूलभूतानां ख्यातिपूजालाभस्वरूपादीनां अपध्यानानां विपरीतस्य स्वशुद्धात्मध्यानस्याभावे यानि कृतानि कर्माणि तदुदयजनितेन देहभेदेन जो कुणइ समस्त द्रव्य गुण पर्यायोंको एक ही समयमें जाननेमें समर्थ जो केवलदर्शन केवलज्ञान है, उसे निज लक्षणोंसे जो कोई जानता है, वही सिद्धपद पाता है । जो ज्ञानी अच्छी तरह इन निज लक्षणोंको जान लेवे वह देह भेदसे जीवोंका भेद नहीं मान सकता । अर्थात् देहसे उत्पन्न जो विषयसुख उनके रसके आस्वादसे विमुख शुद्धात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन किये जो ज्ञानावरणादिकर्म, उनके उदयसे उत्पन्न हुए देहादिकके भेदसे जीवोंका भेद, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी कदापि नहीं मान सकता । देहमें भेद हुआ तो क्या, गुणसे सब समान हैं, और जीव-जातिकर एक हैं । यहाँ पर जो कोई ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती नाना जीवोंको नहीं मानते हैं, और वे एक ही जीव मानते हैं, उनकी यह बात अप्रमाण है । उनके मतमें एक ही जीवके माननेसे बड़ा भारी दोष होता है । वह इस तरह है, कि एक जीवके जीने मरने सुख दुःखादिके होनेपर सब जीवोके उसी समय जीना मरना, सुख, दुःखादि होना चाहिये, क्योंकि उनके मतमें वस्तु एक है । परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता । इसलिये उनका वस्तु एक मानना वृथा है, ऐसा जानो ॥१०१॥
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आगे जीवको ही जानते हैं, परंतु उसके लक्षण नहीं जानते, यह अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं - [ यः ] जो [ देहविभेदेन ] शरीरोके भेदसे [ जीवानां] जीवोंका [विचित्रं ] नानारूप [भेदं] भेद [करोति ] करता है, [स] वह [तेषां ] उन जीवोंका [ दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ] दर्शन ज्ञान चारित्र [लक्षणं ] लक्षण [ नैव मनुते ] नहीं जानता, अर्थात् उसको गुणोंकी परीक्षा (पहचान नहीं
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