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- दोहा १०७ 1
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मनुष्यजात्यपेक्षया ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रादिवर्णभेदं मा कार्षीः, यतः कारणात् इक्कई देवई एकेन देवेन अभेदनयापेक्षया शुद्धैकजीवद्रव्येण जे येन कारणेन वसइ वसति । किं कर्तृ । तिणु त्रिभुवनं त्रिभुवनस्थो जीवराशिः एहु एषः प्रत्यक्षीभूतः । कतिसंख्योपेतः । असेसु अशेषं समस्त इति । त्रिभुवनग्रहणेन इह त्रिभुवनस्थ जीवराशिगृह्यते इति तात्पर्यम् । तथाहि । लोकस्तावदयं सूक्ष्मजीवैर्निरन्तरं भृतस्तिष्ठति । बादरैश्वाधारवशेन क्वचिदेव त्रसैः क्वचिदपि । तथा ते जीवाः शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्त्यपेक्षया केवलज्ञानादिगुणरूपास्तेन कारणेन स एव जीवराशिः यद्यपि व्यवहारेण कर्मकृतस्तिष्ठति तथापि निश्चयनयेन शक्तिरूपेण परमब्रह्मखरूपमिति भण्यते, परमविष्णुरिति भव्यते, परमशिव इति च । तेनैव कारणेन स एव जीवराशिः केचन परमब्रह्ममयं जगद्वदन्ति केचन परमविष्णुमयं वदन्ति, केचन पुनः परमशिवमयमिति च । अत्राह शिष्यः । यद्येवंभूतं जगत्संमतं भवतां तर्हि परेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिः । परिहारमाह । यदि पूर्वोक्तनयविभागेन केवलज्ञानादिगुणापेक्षया वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण मन्यन्ते तदा तेषां दूषणं नास्ति, यदि पुनरेकः पुरुषविशेषो व्यापी जगत्कर्ता जानो । अनंत जीवोंकर यह लोक भरा हुआ हैं । उस जीव राशिमें भेद ऐसे हैं - जो पृथ्वीकायसूक्ष्म, जलकायसूक्ष्म, अग्निकायसूक्ष्म, वायुकायसूक्ष्म, नित्यनिगोदसूक्ष्म, इतरनिगोदसूक्ष्म इन छह तरह सूक्ष्म जीवोंकर तो यह लोक निरंतर भरा हुआ है, सब जगह इस लोकमें सूक्ष्म जीव हैं । और पृथ्वीकायबादर, जलकायबादर, अग्निकायबादर, वायुकायबादर, नित्यनिगोदबादर, इतरनिगोदबादर, और प्रत्येक वनस्पति ये जहाँ आधार हैं वहाँ हैं । सो कहीं पाये जाते हैं, कहीं नहीं पाये
परमात्मप्रकाशः
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, परंतु भी बहुत जगह हैं । इस प्रकार स्थावर तो तीनों लोकमें पाये जाते हैं, और दोइन्द्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय तिर्यंच ये मध्यलोकमें ही पाये जाते हैं, अधोलोक ऊर्ध्वलोकमें नहीं । उनमेंसे दोइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय जीव कर्मभूमिमें ही पाये जाते हैं, भोगभूमिमें नहीं । भोगभूमिमें गर्भज पंचेंद्रिय सेनी थलचर या नभचर ये दोनों जाति - तिर्यंच हैं । मनुष्य मध्यलोकमें ढाई द्वीपमें पाये जाते हैं, अन्य जगह नहीं । देवलोकमें स्वर्गवासी देव देवी पाये जाते हैं, अन्य पंचेन्द्रिय नहीं । पाताललोकमें ऊपरके भागमें भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव और नीचेके भागमें सात नरकोंके नारकी पंचेंद्रिय हैं, अन्य कोई नहीं और मध्यलोकमें भवनवासी व्यंतरदेव तथा ज्योतिषीदेव ये तीन जातिके देव और तिर्यंच पाये जाते हैं । इस प्रकार त्रसजीव किसी जगह है, किसी जगह नहीं है । इस तरह यह लोक जीवोंसे भरा हुआ है । सूक्ष्मस्थावरके बिना तो लोकका कोई भाग खाली नहीं है, सब जगह सूक्ष्मस्थावर भरे हुए हैं । ये सभी जीव शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा केवलज्ञानादि गुणरूप हैं । इसलिए यद्यपि यह जीव राशि व्यवहारनयकर कर्माधीन है, तो भी निश्चयनयकर शक्तिरूप परब्रह्मस्वरूप है । इन जीवोंको ही परमविष्णु कहना, परमशिव कहना चाहिये । यही अभिप्राय लेकर कोई एक ब्रह्ममयी जगत कहते हैं, कोई एक विष्णुमयी कहते हैं, कोई एक शिवमयी कहते हैं । यहाँपर शिष्यने प्रश्न किया, कि
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