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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १११*३बीभत्थं (च्छं ?) भयानकम् । पुनरपि कथंभूतम् । दड्ढमडयसारिच्छं दग्धमृतकसदृशम् । एवंविधं रूपं धृवा हे तपोधन अहिलससि अभिलाषं करोषि किं ण लज्जसि लज्जां किं न करोषि । किं कुर्वाणः सन् । भिक्खाए भोयणं मिटुं भिक्षायां भोजनं मृष्टं इति मन्यमानः सन्निति । श्रावकेण तावदहाराभयभैषज्यशास्त्रदानं तात्पर्येण दातव्यम् । आहारदानं येन दत्तं तेन शुद्धात्मानुभूतिसाधकं बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं द्वादशविधं तपश्चरणं दत्तं भवति । शुद्धात्मभावनालक्षणसंयमसाधकस्य देहस्यापि स्थितिः कृता भवति । शुद्धात्मोपलंभमाप्तिरूपा भवान्तरगतिरपि दत्ता भवति । यद्यप्येवमादिगुणविशिष्टं चतुर्विधदानं श्रावकाः प्रयच्छन्ति तथापि निश्चयव्यवहाररत्नत्रयाराधकतपोधनेन बहिरङ्गसाधनीभूतमाहारादिकं किमपि गृह्णतापि स्वस्वभावप्रतिपक्षभूतो मोहो न कर्तव्य इति तात्पर्यम् ॥ १११*२ ॥ अथ
जइ इच्छसि भो साह बारह-विह-तवहलं महा-विउलं ।
तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु ॥ १११*३ ॥ ऐसे [नग्नरूपं] वस्त्र रहित नग्नरूपको [कृत्वा] धारण करके हे साधु, तू [भिक्षायां] परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें [मिष्टं] स्वादयुक्त [भोजनं] आहारकी [अभिलषसि] इच्छा करता हैं, तो तू [किं न लज्जसे] क्यों नहीं शरमाता ? यह बडा आश्चर्य है ॥ भावार्थ-पराये घर भिक्षाको जाते मिष्ट आहारकी इच्छा धारण करता है, सो तुझे लाज नहीं आती ? इसलिये आहारका राग छोड अल्प और नीरस आहार उत्तमकुली श्रावकके घर साधुको लेना योग्य है । मुनिको राग-भाव रहित आहार लेना चाहिये । स्वादिष्ट सुन्दर आहारका राग करना योग्य नहीं है । और श्रावकको भी यही उचित है, कि भक्ति-भावसे मुनिको निर्दोष आहार देवे, जिसमें शुभका दोष न लगे । और आहारके समय ही आहारमें मिली हुई निर्दोष औषधि दे, शास्त्र दान करे, मुनियोंका भय दूर करे, उपसर्ग निवारण करे । यही गृहस्थको योग्य है । जिस गृहस्थने यतिको आहार दिया, उसने तपश्चरण दिया, क्योंकि संयमका साधन शरीर है, और शरीरकी स्थिति अन्न जलसे है । आहारके ग्रहण करनेसे तपस्याकी बढवारी होती है । इसलिये आहारका दान तपका दान है । यह तप संयम शुद्धात्माकी भावनारूप है, और ये अंतर बाह्य बारह प्रकारका तप शुद्धात्माकी अनुभूतिका साधक है । तप संयमका साधन दिगम्बरका शरीर है । इसलिये आहारके देनेवालेने यतिके देहकी रक्षा की, और आहारके देनेवालेने शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष दिया । क्योंकि मोक्षका साधन मुनिव्रत है, और मुनिव्रतका साधन शरीर है, तथा शरीरका साधन आहार है । इस प्रकार अनेक गुणोंको उत्पन्न करनेवाला आहारादि चार प्रकारका दान उसको श्रावक भक्तिसे देता है, तो भी निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके आराधक योगीश्वर महातपोधन आहारको ग्रहण करते हुए भी राग करते हैं । राग द्वेष मोहादि परिणाम निजभावके शत्रु हैं, यह सारांश हुआ ॥१११*२॥
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