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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १०८ब्रह्मादिनामास्तीति मन्यन्ते तदा तेषां दूषणम् । कस्माद् दूषणमिति चेत् । प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधितखात् साधकप्रमाणप्रमेयचिन्ता तर्के विचारिता तिष्ठत्यत्र तु नोच्यते अध्यात्मशास्त्रखादित्यभिप्रायः ॥ १०७ ॥ इति षोडशवर्णिकासुवर्णदृष्टान्तेन केवलज्ञानादिलक्षणेन सर्वे जीवाः समाना भवन्तीति व्याख्यानमुख्यतया त्रयोदशसूत्रैरन्तरस्थलं गतम् । एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये चतुर्भिरन्तरस्थलैः शुद्धोपयोगवीतरागस्वसंवेदनज्ञानपरिग्रहत्यागसर्वजीवसमानतामतिपादनमुख्यलेनैकचत्वारिंशत्सूत्रैमहास्थलं समाप्तम् ।। ___ अत ऊर्ध्वं 'परु जाणंतु वि' इत्यादि सप्ताधिकशतसूत्रपर्यन्ते स्थलसंख्यावहिर्भूतान् प्रक्षेपकान् विहाय चूलिकाव्याख्यानं करोति इति
पर जाणंतु वि परम-मुणि पर-संसग्गु चयंति । पर-संगई परमप्पयह लक्खहँ जेण चलंति ॥ १०८ ॥ परं जानन्तोऽपि परममुनयः परसंसर्ग त्यजन्ति ।
परसंगेन परमात्मनः लक्ष्यस्य येन चलन्ति ॥ १०८ ॥ परु जाणंतु वि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । परु जाणंतु वि परद्रव्यं तुम भी जीवोंको परब्रह्म मानते हो, तथा परमविष्णु परमशिव मानते हो, तो अन्यमतवालोंको क्यों दूषण देते हो ? उसका समाधान-हम तो पूर्वोक्त नयविभागकर केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा वीतराग सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे जीवोंको ऐसा मानते हैं, तो दूषण नहीं है । इस तरह वे नहीं मानते हैं । वे एक कोई पुरुष जगतका कर्ता हर्ता मानते हैं । इसलिये उनको दूषण दिया जाता है, क्योंकि जो कोई एक शुद्ध बुद्ध नित्य मुक्त है, उस शुद्ध बुद्धको कर्ता हर्तापना हो ही नहीं सकता, और इच्छा है वह मोहकी प्रकृति है । भगवान मोहसे रहित हैं, इसलिये कर्ताहर्ता नहीं हो सकते । कर्ता हर्त्ता मानना प्रत्यक्ष विरोध है । हम तो जीव-राशिको परमब्रह्म मानते हैं, उसी जीवराशिसे लोक भरा हुआ है । अन्यमती ऐसा मानते हैं, कि एक ही ब्रह्म अनंतरूप हो रहा है । जो वही एक सबरूप हो रहा होवे, तो नरक निगोद स्थानको कौन भोगे ? इसलिये जीव अनंत हैं । इन जीवोंको ही परमब्रह्म परमशिव कहते हैं, ऐसा तू निश्चयसे जान ।।१०७।। इस प्रकार सोलहवानीके सोनेके दृष्टान्तद्वारा केवलज्ञानादि लक्षणसे सब जीव समान हैं, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे तेरह दोहा-सूत्र कहे । इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्षफल, और मोक्ष इन तीनोंको कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें चार अन्तरस्थलोंका इकतालीस दोहोंका महास्थल समाप्त हुआ । इनमें शुद्धोपयोग, वीतराग स्वसंवेदनज्ञान, परिग्रह त्याग, और सब जीव समान हैं, ये कथन किया ।
आगे ‘पर जाणंतु वि' इत्यादि एकसौ सात दोहा पर्यंत तीसरा महाधिकार कहते हैं, उसीमें ग्रंथको समाप्त करते हैं-[परममुनयः] परममुनि [परं जानंतोऽपि] उत्कृष्ट आत्मद्रव्यको जानते हुए भी [परसंसर्गं] परद्रव्य जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म उसके सम्बंधको [त्यजंति] छोड देते हैं [येन] क्योंकि [परसंसर्गेण] परद्रव्यके सम्बन्धसे [लक्ष्यस्य] ध्यान करने योग्य जो
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